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व्यावसायिक आयुर्विज्ञान

व्यावसायिक आयुर्विज्ञान

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व्यावसायिक आयुर्विज्ञान (Occupational medicine) नैदानिक आयुर्विज्ञान (clinical medicine) की वह शाखा है जो व्यावसायिक स्वास्थ्य से सम्बन्धित है। इसके विशेषज्ञ प्रत्यन करते हैं कि व्यावसायिक संरक्षा एवं स्वास्थ्य के उच्चतम मानदण्ड प्राप्त किये जा सके। इसका संबंध उद्योग के स्थलों में अंतर्व्याप्त परिस्थितियों के अध्ययन तथा नियंत्रण से है।

बहुत पहले से ही स्वास्थ्यवेत्ता यह मानते आ रहे हैं कि काम करने वालों के स्वास्थ्य और कल्याण करने की परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है, जैसा बरडर्डाइन रमज़्ज़ने (Berdardine Ramazzne (७०० ई.)) की इस टिप्पणी से प्रत्यक्ष हो जाता है-

हिपोक्रेटीज़ ने कहा है कि 'जब आप किसी रोगी के घर जाएँ तो उससे आपको पूछना चाहिए उसे किस प्रकार की पीड़ा है, वे पीड़ाएँ कैसे हुईं, और वह कितने दिनों से रुग्ण है। उसका पेट ठीक काम कर रहा है न और वह किस प्रकार का भोजन करता है।' मैं एक प्रश्न और जोड़ना चाहूँगा : 'वह क्या व्यवसाय करता है।'

काम की परिस्थितियाँ

श्रमिक सामान्यत: अपने समय का एक तिहाई अपने काम के स्थल में व्यतीत करता है और इसलिए अपने काम की भौतिक, रासायनिक तथा मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों से वह विशेष रूप से प्रभावित होता है। साधारणत: भौतिक परिस्थितियाँ ये हैं : गर्मी, ठंडक, आर्द्रता, प्रकाश आदि। रासायनिक तत्व हैं : विविध गैंसे, धुआँ, धूल आदि। मनोवैज्ञानिक तत्व हैं : स्वास्थ्यविषयक सुविधाएँ, प्रकाश, पीने तथा मुँह हाथ धोने का पानी, मनोविनोद, उपाहारगृह, संरक्षक उपकरण, बैठने तथा विश्राम की सुविधाएँ, रहन-सहन की दशा, प्रबंधकों का बरताव, तथा उच्चतर अधिकारियों तक पहुँचने की सुविधाएँ। इन तत्वों का प्रभाव जटिल होता है और इनमें से किसी एक अथवा सम्मिलित क्रिया द्वारा श्रमिक के स्वास्थ्य, कल्याण तथा योग्यता पर प्रभाव पड़ सकता है।

ताप और दुर्घटना

यह देखा गया है कि जब गर्मी अथवा ठंड से बेचैनी उत्पन्न होती है तब उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ता है, छोटी-छोटी दुर्घटनाएँ बढ़ जाती हैं, श्रमिकों का मन मर जाता है और उनमें असंतोष फैलता है। ब्रिटेन में कारखाने के ताप से संबद्ध दुर्घटनाओं का जो अध्ययन किया उससे विदित हुआ कि ६७ डिग्री सेल्सियस ताप पर दुर्घटनाएँ सबसे कम थीं, इससे कम और अधिक तापों पर दुर्घटनाएँ अधिक हुईं।

प्रकाश और दुर्घटनाओं का संबंध

इसी प्रकार संयुक्त राज्य अमरीका में, बिजली से चलने वाले कारखानों में एक महत्वूपर्ण अध्ययन हुआ। इसमें उत्पादन के संबंध में प्रकाश की तीव्रता तथा चकाचौंध के प्रभावों का अध्ययन किया गया था। उससे पता चला कि ऐसे तत्वों का कारीगरों की प्रसन्नता तथा उत्पादन पर अत्यंत उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है। ब्रिटेन की इल्युमिनेटिंग इंजीनियरिंग सोसाइटी के अनुसार महीन काम के लिए ५० फुट-कैंडल का प्रकाश चाहिए (अर्थात् उतने प्रकाश का ५० गुना जो एक मोमबत्ती से १ फुट की दूरी पर पड़ता है), साधारण कामों के लिए १५ से २५ फुट-कैंडल तक का और मोटे कामों के लिए ६ से १० फुट-कैंडल तक का। कम प्रकाश से कम काम होता है, उससे अशुद्धियाँ रह जाती हैं और दुर्घटनाएँ अधिक होती हैं। श्रमिकों की आँखों में पीड़ा उत्पन्न होती है और सरदर्द होता है, मन खिजलाने लगता है और उदासी उत्पन्न होती है। उत्तर के आकाश से आए प्रकाश में दिन में काम हो सके तो सबसे अच्छा।

व्यावसायिक रोग

प्रतिकूल परिस्थितियों से विशेष पीड़ाएँ तथा रोग भी उत्पन्न होते हैं जिसका प्रभाव कारीगरों के उत्पादन तथा योग्यता पर पड़ता है। बढ़ने पर औद्योगिक रोगों को पहचानना बहुत कठिन नहीं होता किंतु आरंभिक लक्षणों का अन्वेषण और उनके कारणों की पहचान करना कुछ कठिन और साथ ही रोचक भी है।

औद्योगिक रोगों का वर्गीकरण करना कठिन है, साधारणत: उनको निम्नलिखित कोटियों में रखा जा सकता है :

प्राकृतिक माध्यम से होनेवाले रोग - ठंड से ऐंठन (क्रैंप), गरमी से लू या उष्माघात, मोतियाबिंद, पाला मारना, दाब, केसन का रोग, जिसमें वायु दाब के एकाएक घटने के कारण सारे शरीर में बड़ी पीड़ा होती है तथा वायविक रक्तप्रसारणावरोध (एअर एंबालिज़्म)-जिसमें वायु के बुलबुलों के कारण रुधिर का बहना रुक जाता है।

रासायनिक कारणोंवाले रोग - वे रोग जो पोटास, ऐनीलिन, रासायनिक रज (धूल), ऐस्बेस्टस, पारा, सीसा, संखिया तथा अन्य विषों से काम करनेवाले श्रमिकों को होते हैं। रासायनिक गैसों, जैसे अमोनिया, फ़ौसजीन, नाइट्रस धुएँ, बेंज़ीन आदि के वाष्प से होनेवाली विषाक्तता।

मनोवैज्ञानिक कारणोंवाले रोग - आँख की पुतलियों की कँपकँपी (माइनर्स न्यिस्टैगमस)।

ऊपर जिन औद्योगिक रोगों का उल्लेख किया गया है उनमें से कुछ तो बहुत महत्वपूर्ण हैं। अधिकांश देशों की सरकारों ने नियम बना दिया है कि रोग होते ही उन्हें सूचना मिले। भारत में फैक्टरी ऐक्ट द्वारा १७ रोगों को विज्ञापनीय कर दिया गया है, चिकित्सकों के देखने में यदि ऐसा कोई रोगी आ जाए जो इनमें से किसी रोग से आक्रांत हो तो चिकित्सक के लिए सरकार को सूचना देना अनिवार्य कर दिया गया है। ये रोग हैं : सीसा, टेट्राएथिल, फ़ॉस्फ़रस, पारा, संखिया, नाइट्रस धुआँ, कार्बन बाइसल्फ़ाइड, बेंज़ीन, क्रोमियम के लवण, धूलि, आयोडीन, ब्रोमीन, रेडियोधर्मी पदार्थ तथा एक्सरे से उत्पन्न रोग और ऐंथ्राक्स, चर्म का कर्कट, विषाक्त रक्तहीनता तथा विषाक्त पीलिया नामक रोग।

औद्योगिक रोगों में से प्राय: सभी रोके जा सकते हैं, अत: व्यावसायिक आयुर्विज्ञान के अध्ययन तथा व्यवसाय का अत्यधिक महत्व स्वयंसिद्ध है।

व्यावसायिक आयुर्विज्ञान सेवा

प्रत्येक प्रत्येक देश में व्यावसायिक आयुर्विज्ञान सेवा का क्षेत्र एक सा नहीं है, किंतु सामान्यत: इसके अंतर्गत निम्नलिखित औद्योगिक कार्य समाविष्ट हैं : रोगों की रोकथाम, कारखानों में काम की दशाओं में सुधार, औद्योगिक दुर्घटनाओं का उपचार तथा घायल अथवा अपंग औद्योगिक कारीगरों को फिर कोई काम करने योग्य बनाना।

यथोचित औद्योगिक रोगोपचार सेवा के लिये एक चिकित्सक, एक काया (प्रकृति) परीक्षक, एक योग्य इंजीनियर, एक रसायनज्ञ, एक शरीर-विज्ञान-वेत्ता, एक भौतिक चिकित्सा करनेवाला तथा एक औद्योगिक नर्स होनी चाहिए। इस पूरे दल को परस्पर सहयोग से काम करना चाहिए क्योंकि औद्योगिक रोगों के आरंभिक लक्षणों का पता तथा उनका निदान इस दल के प्रत्येक सदस्य के निरीक्षण पर ही निर्भर रहेगा। उदाहरणत: सीसे की विषाक्तता के निदान के लिए यह आवश्यक है कि चिकित्सक कारीगर की साधारण परीक्षा करे, कायापरीक्षक उस रोगी के रक्त के चित्र बनाकर दे, बायोकेमिस्ट मलमूत्र में रोग के संचयन का पता लगाए, रसायनज्ञ वायु में सीसे की मात्रा का अनुसंधान करे, इंजीनियर इस बात का पता लगाए कि कारखाने की किन मशीनों से यह विष उत्पन्न हो होता है। यदि कोई कारीगर औद्योगिक रोग अथवा चोट से अपाहिज हो गया हो तो विशेषज्ञ उसे फिर से काम करने योग्य बनाने में सहायता दे सकता है। औद्योगिक नर्स केवल चिकित्सक की ही सहायता नहीं करती वरन् वह कारीगर को स्वास्थ्य और कल्याण के विषय में परामर्श देने का भी काम करती है।

औद्योगिक चिकित्सक को कारीगर की प्रारंभिक चिकित्सा और उसके रोग का निदान तो करना ही होता है, साथ ही कारीगरों की परीक्षा करके कारखानों में उनके प्रवेश से पूर्व यह भी निर्धारित करना होता है कि वह कारीगर अपनी शारीरिक क्षमता के अनुकूल किस विशेष काम पर लगाया जाना चाहए, अथवा उसे कारखाने में काम करने देना ही नहीं चाहिए। इसी प्रकार उसे उन कारीगरों की भी समय-समय पर चिकित्सीय परीक्षा करते रहना पड़ता है जो भयावह प्रक्रियाओं पर लगाए जाते हैं, जिससे भयावह सामग्री के संपर्क से कारीगरों पर धीरे-धीरे पड़नेवाले बुरे प्रभाव की जानकारी समय से हो सके। औद्योगिक चिकित्सक का यह भी दायित्व है कि वह छोटी-छोटी सेवाएँ, जैसे दाँतों की रक्षा आदि का भी कार्य करता रहे। उसे श्रमिकों की मनोवैज्ञानिक समस्याओं के संबंध में भी परामर्श देना पड़ता है, अत: यदि उसे श्रमिक मालिक दोनों का ही विश्वासभाजन बनना है तो उसे अपने कार्य में विशेष दक्ष होना चाहिए। यह सिद्ध हो चुका है कि जिन बड़े करखानों में अच्छी औद्योगिक रोगोपचार सेवा की व्यवस्था रहती है, वहाँ केवल उसका व्यय ही नहीं निकल आता वरन् यथेष्ट अतिरिक्त लाभ भी होता है, क्योंकि इसके द्वारा उद्योग में कम से कम व्यय पर बढ़िया सामान उत्पन्न किया जा सकता है।

इन्हें भी देखें

  • टी.ए. लायड डेविस : द प्रैक्टिस ऑव इंडस्ट्रियल मेडिसिन (लंदन, १९४८);
  • मेडिकल रिसर्च काउंसिल : दि ऐप्लिकेशन ऑव सायटिफ़िक मेथड्स टु इंडिस्ट्रियल ऐंड सर्विस मेडिसिन (लंदन, १९५१)।

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