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संविभ्रम
संविभ्रम (Paranoia) एक गंभीर भावात्मक विकार है और तर्कसंगत, सुसंबद्ध, जटिल तथा प्राय: उत्पीड़क विभ्रमों या मिथ्या विश्वासों का उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ सिलसिला इसका आंतरिक लक्षण है। संविभ्रमी व्यक्ति को अपनी योग्यता, प्रभुता, पद की वरिष्ठता, या निरंतर यातना का भ्रम होता है। यह उन्माद का ही एक रूप है, परंतु इसमें अन्य सभी मानसिक क्रियाएँ बहुधा स्वाभाविक अवस्था में रहती हैं।
कमरे में किसी नए व्यक्ति के प्रविष्ट होते ही उपस्थित मित्रमंडली के एकाएक बातचीत बंद कर देने पर, व्यक्ति का यह समझना कि अभी उसकी की चर्चा हो रही थी, एक सामान्य प्रतिक्रिया है। किसी जनसंकुल होटल में घुसने पर सभी अपनी ओर देख रहे हैं यह समझना भी स्वाभविक प्रतिक्रिया है, किंतु संविभ्रमी प्रतिक्रिया में ये भाव स्थायी और व्यापक हो जाते हैं।
परिचय
शुद्ध संविभ्रम दुर्लभ है, कुछ तो इसके अस्तित्व में ही संदेह करते हैं। यह मदिरा या कोकेन के चिरकालिक व्यसनियों में नशे की अवस्था में, अंतराबंध (Schizophrenia) जैसे उन्माद से सहचरित स्थिति में, या उत्तेजना संविषाद (mame depressive psychosis) में स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में पाया जाता है।
बुढ़ापे के जटिल विषाद रोग में रोगी के मन में हीनता और अपराध के भावों को जन्म देनेवाले, आत्मपरक उत्पीड़क विचार आते हैं। इसमें रोगी अपने पिछले पापों और अपराधों को बहुत विशद रूप से देखता ओर अपने को अपराधी करार देता है। वह अत्यंत सतर्क हो जाता है और सोचता है कि सभी उसे घृणा की दृष्टि से देख रहे हैं। वह दूर के शोर को अपनी उत्पड़ित संतान का, जो उसके कुकृत्यों का फल भोग रहे हैं, क्रंदन समझता है और वह अपने अक्षम्य अपराधों के कारण प्रलय का होना अवश्यभावी समझता है। उन्मत भव्य कल्पना भी करता है; उदाहरणार्थ, वह समझता है कि उसके हितेच्छु अपनी समूची शक्ति से उसे उच्च् पद पर पहुँचाने की चेष्टा कर रहे हैं।
संविभ्रमी व्यक्ति में चिड़चिड़ापन, अति संवेदनशीलता और आत्मविश्वास की कमी होती है। बधिरता जैसी असुविधाजनक शारीरिक त्रुटि संविभ्रामी लक्षणों के विकास में उत्तेजक होती है। किसी ऐसी आदत या परिस्थिति से जिसके साथ लज्जा का भाव सहचरित होता है और जिसे रोगी छिपना चाहता है, जैसे हस्तमैथुन, विकृत कामाचरण, प्रेमव्यापार, अवैध जन्म, गुप्त सुरापान, से प्राय: संविभ्रम का सिलसिला प्रारंभ होता है। रहस्य के यथार्थ या कल्पित उद्घाटन से संविभ्रम के लक्षण तेजी से प्रकट होने लगते हैं और रोगी समझता है कि उसका अपराध सबको ज्ञात हो गया है, चारों ओर उससे सम्बन्धित कानाफूसी हो रही है, मित्र और सगे सम्बन्धी उसे संदेह की दृष्टि से देखते हैं, उससे बचने की कोशिश करते हैं और उसके प्रति षड्यंत्र करते हैं। वह अत्यंत उद्विग्न हो जाता है और दुस्सह ग्लानि, आत्मघाती प्रयत्न, विकृत चेतना या निर्मूल भ्रम की गौण भावात्मक स्थितियाँ उसके मन में उत्पन्न हो जाती हैं। बीमारी, आत्मगौरव पर चोट, पदोन्नति का न होना जबकि औरों की पदोन्नति हो रही हो, मुकदमें में हार, कारावास से एकांतवास जैसी घटनाओ से संविभ्रम के भी लक्षण उत्तेजित हो जाते है। रोगी अपने विचारों का सही मूल्यांकन नहीं कर पाता; उदाहरण के लिये, एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय में मामला ले जानेवाले और अपने कानूनी परामर्शदाता तक पर बिगड़ उठनेवाला, संविभ्रमी मुकदमेबाज इस भ्रम में हो सकता है कि वह केवल यथार्थ के लिये नहीं, बल्कि एक बृहत्तर सिद्धांत के लिये संघर्ष कर रहा है।
संविभ्रम के गंभीर रोगियों को छोड़कर साधारण रोगियों में सुसंगत विचार और तर्कशक्ति बनी रहती है, यहाँ तक कि चिकित्सक के लिये भी यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि व्यक्ति वास्तव में संविभ्रमी है या नहीं।
समाज में कुछ चिरकालिक मंद संविभ्रमी व्यक्ति सामान्य जीवनयापन करते है और अनावश्यक रूप से सतर्क होने के कारण अपने परिवार और घनिष्ट मित्रों को ही खटकते हैं। इसका उपचार कठिन और श्रमसाध्य है और गंभीर संविभ्रम के उपचार में मस्तिष्क की शल्यचिकित्सा करनी पड़ती है, जिसका परिणाम बहुत ही अनिश्चित सा होता है।
पठनीय
- Farrell, John. Paranoia and Modernity: Cervantes to Rousseau (Cornell University Press, 2006)।
- Freeman, D. & Garety, P.A. (2004) Paranoia: The Psychology of Persecutory Delusions. Hove: Psychology Press. ISBN 1-84169-522-X
- Igmade (Stephan Trüby et al., eds.), 5 Codes: Architecture, Paranoia and Risk in Times of Terror", Birkhäuser 2006. ISBN 3-7643-7598-1
- Kantor, Martin. (2004) Understanding Paranoia: A Guide for Professionals, Families, and Sufferers. Westport: Praeger Press. ISBN 0-275-98152-5
- Munro, A. (1999) Delusional disorder. Cambridge: Cambridge University Press. ISBN 0-521-58180-X
- Sims, A. (2002) Symptoms in the mind: An introduction to descriptive psychopathology (3rd edition). Edinburgh: Elsevier Science Ltd. ISBN 0-7020-2627-1
- Siegel, Ronald K. (1994) Whispers: The Voices of Paranoia. New York: Crown.
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