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प्लेग

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ताऊन या प्लेग (Plague) संसार की सबसे पुरानी महामारियों में है। इसे ताऊन, , पेस्ट आदि नाम भी दिए गए हैं। मुख्य रूप से यह कृतंक (rodent) प्राणियों (प्राय: चूहे) का रोग है, जो पास्चुरेला पेस्टिस नामक जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है। आदमी को यह रोग प्रत्यक्ष संसर्ग अथवा पिस्सू के दंश से लगता है। यह तीव्र गति से बढ़ता है, बुखार तेज और लसीका ग्रंथियाँ स्पर्शासह्य एवं सूजी होती हैं, रक्तपुतिता की प्रवृत्ति होती है और कभी-कभी यह न्यूमोनिया का रूप धारण करता है। भारी पैमाने पर तबाही मचाने के कारण पूरे इतिहास में प्लेग कुख्यात रही है आज भी विश्व के कुछ भागों में प्लेग महामारी बना हुआ है इस रोग में RBC नष्ट हो जाती है इस तरह रोगी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है अतः इसे काली मृत्यु भी कहते हैं तथा शरीर के अनेक भागों पर काले रंग के गहरे बन जाते हैं वह उस स्थान का रक्त काला हो जाता है

प्लेग महामारियों की कहानी

प्राचीन काल में किसी भी महामारी को प्लेग कहते थे। यह रोग कितना पुराना है इसका अंदाज इससे किया जा सकता है कि एफीरस के रूफुस ने, जो ट्रॉजन युग का चिकित्सक था, "प्लेग के ब्यूबों" का जिक्र किया है और लिखा है कि है। ईसा पूर्व युग में 41 महामारियों के अभिलेख मिलते हैं। ईसा के समय से सन् 1500 तक 109 बढ़ी महामारियाँ हुईं, जिनमें 14वीं शताब्दी की "ब्लैक डेथ" प्रसिद्ध है। सन् 1500 से 1720 तक विश्वव्यापी महामारियाँ (epidemics) फैलीं। फिर 18वीं और 19वीं शताब्दी में शांति रही। सिर्फ एशिया में छिटफुट आक्रमण होते रहे। तब सन् 1894 में हांगकांग में इसने सिर उठाया और जापान, भारत, तुर्की होते हुए सन् 1896 में यह रोग रूस जा पहुँचा, सन् 1898 में अरब, फारस, ऑस्ट्रिया, अफ्रीका, दक्षिणी अमरीका और हवाई द्वीप तथा सन् 1900 में इंग्लैंड, अमरीका और ऑस्ट्रेलिया में इसने तांडव किया। सन् 1898 से 1918 तक भारत में इसने एक करोड़ प्राणों की बलि ली। अब पुन: संसार में शांति है, केवल छिटपुट आक्रमण के समाचार मिलते हैं।

प्लेग महामारियों के चक्र चलाते रहे हैं। छठी शताब्दी में पचास वर्षों तक यूरोप में इसका एक दौर चला। समूचे रोमन साम्राज्य में प्लेग बदंरगाहों से आरंभ होकर दूरवर्ती नगरों की ओर फैला था। सातवीं शताब्दी में 664 से 680 तक फैली महामारियाँ, जिनका उल्लेख बेडे ने किया है, शायद प्लेग ही थी। 14वीं शताब्दी में "काली मौत" के नए दौर आरंभ हुए, जिनमें मृत्युसंख्या भयावह थी। प्रथम दौर में अनेक नगरों की दो तिहाई से तीन चौथाई आबादी तक साफ हो गई। कहते हैं, इस चक्र में यूरोप में ढाई करोड़ (अर्थात् कुल आबादी के चौथाई) व्यक्ति मर गए। 1664-65 में इतिहासप्रसिद्ध "ग्रेट प्लेग" का लंदन नगर पर आक्रमण हुआ। लंदन की आबादी साढ़े चार लाख थी, जिसमें से दो तिहाई लोग डरकर भाग गए और बचे लोगों में से 68,596 प्लेग का शिकार हो गए। कहते हैं, इसी के बाद हुए लंदन के बृहत् अग्निकांड ने नगर से प्लेग को निकाल बाहर किया। पर संभवत: यह चमत्कार सन् 1720 में लगाई गई कठोर क्वांरटीन का फल था। इसके बाद थी यूरोप में प्लेग के आक्रमण होते रहे और अंत में सन् 1720 में मार्सेई में 87,500 प्राणों की बलि लेकर यह शांत हुआ।

सन् 1675 से 1684 तक उत्तरी अफ्रीका, तुर्की, पोलैंड, हंगरी, जर्मनी, आस्ट्रिया में प्लेग का एक नया उत्तराभिमुख दौरा हुआ, जिसमें सन् 1675 में माल्टा में 11,000 सन् 1679 में विएना में 76,000 और सन् 1681 में प्राग में 83,000 प्राणों की आहुति पड़ी। इस चक्र की भीषणता की कल्पना इससे की जा सकती है कि 10,000 की आबादीवाले ड्रेस्डेन नगर में 4,397 नागरिक इसके शिकार हो गए।

सन् 1833 से 1845 तक मिस्त्र में प्लेग का तांडव होता रहा। पर इसी समय यूरोप में विज्ञान का सूर्योदय हो रहा था और मिस्त्र के प्लेग का प्रथम बार अध्ययन किया गया। फ्रेंच वैज्ञानिकों ने बताया कि वास्तव में जितना बताया जाता है यह उतना संक्रामक नहीं है। सन् 1878 में वोल्गा महामारी से यूरोप संशक हो उठा और सभी राज्यों ने जाँच आयोग भेजे, जो महामारी समाप्त होने के बाद घटनास्थल पर पहुँचे।

प्लेग के स्थायी गढ़ अरब, मेसोपोटामिया, कुमाऊँ, हूनान (चीन) पूर्वी तथा मध्य अफ्रीका हैं। प्लेग की महामारियों की कहानी विश्व इतिहास के साथ पढ़ने पर ज्ञात होती है कि इतिहास की धाराएँ मोड़ने में इस रोग ने कितना बड़ा भाग लिया है।

भारत में प्लेग

भारत में प्लेग - एक पुरान कहावत थी कि प्लेग सिंधु नद नहीं पार कर सकता। पर 19वीं शताब्दी में प्लेग ने भारत पर भी आक्रमण किया। सन् 1815 में तीन वर्ष के अकाल के बाद गुजरात के कच्छ और काठियावाड़ में इसने डेरा डाला, अगले वर्ष हैदराबाद (सिंध) और अहमदाबाद पर चढ़ाई की, सन् 1836 में पाली (मारवाड़) से चलकर यह मेवाड़ पहुँचा, पर रेगिस्तान की तप्त बालू में अधिक चल न पाया। सन् 1823 में केदारनाथ (गढ़वाल) में, सन् 1834 से 1836 तक उत्तरी भारत के अन्य स्थलों पर आक्रमण हुए और सन् 1849 में यह दक्षिण की ओर बढ़ा। सन् 1853 में एक जाँच कमीशन नियुक्त हुआ। सन् 1876 में एक और आक्रमण हुआ और तब सन् 1898 से अगले 20 वर्षों तक इसने बंबई और बंगाल को हिला डाला।

प्लेगकारक जीवाणु

वैसिलस पेस्टिस (पास्चुरेला पेस्टिस) की खोज सन् 1894 में हांगकांग के किटा साटो और यर्सिन ने की। आगे के अनुसंधानों ने सिद्ध किया कि यह मुख्यत: कृंतक प्राणियों का रोग है। पहले चूहे मरते हैं तब आदमी को रोग लगता है। प्लेग के जीवाणु सरलता से संवर्धनीय है और गिनीपिग (guinea pig) तथा अन्य प्रायोगिक पशुओं में रोग उत्पन्न कर सकते हैं।

प्लेग भूमध्य रेखा के अत्यंत उष्ण प्रदेश को छोड़कर संसार के किसी भी प्रदेश में हो सकता है। कोई भी जाति, या आयु का नरनारी इससे बचा नहीं है। प्लेग हमारे देश में पहले मूस (Rattus norvegicus) को होता है। इससे चूहों (Rattus rattus) को लगता है। पिस्सू (जिनापसेल्ला चियोपिस) इन कृंतकों का रक्तपान करता है। जब चूहे मरते हैं तो प्लेग के जीवाणुओं से भरे पिस्सू चूहे को छोड़कर आदमी की ओर दौड़ते हैं। जब आदमी को पिस्सू काटते हैं, तो दंश में अपने अंदर भरा संक्रामक द्रव्य रक्त में उगल देते हैं। चूहों का मरना आरंभ होने के दो तीन सप्ताह बाद मनुष्यों में प्लेग फैलता है। न्युमोनिक प्लेग का संक्रमण श्वास से निकले जलकणों से लग जाता है और सबसे अधिक संक्रामक होता है। व्यापक अनुसंधान से यह ज्ञात हो चुका है कि लगभग 180 जाति के कृंतक, जिनमें मारमोट, गिलहरी, जरबीले, मूस, चूहे, आदि शामिल हैं, प्लेग से आक्रांत होते हैं और 1,400 में से 70 जातियों के पिस्सू प्लेग संवाहक होते हैं। प्लेग उन्मूलन की यही सबसे कठिन समस्या भी है कि यह जंगली कृंतकों का रोग है और मध्य एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण अमरीका के घने जंगलों में छिपा बैठा है, जहाँ से इसे निकालना कठिन हो रहा है।

प्लेग विकृति

जहाँ पिस्सू काटता है उस स्थल की लसीका ग्रंथि सूज जाती है (प्राइमरी ब्यूबो)। तब शरीर की और लसीका ग्रंथियाँ (गिल्टियाँ) सूजती हैं। कभी-कभी जीवाणु रक्त में पहुँच जाते हैं और रक्तपूतिता हो जाती है। भीषण प्लेग में गिल्टी निकलने का मौका ही नहीं आता। ये जीवाणु शरीर के प्रमुख अंगों में प्रदाह करते हैं और आहत रक्तवाहनियों से रक्तस्त्राव होता है।

लक्षण

प्लेग का उद्भवकाल 1 से 12 दिन है। जाड़ा देकर बुखार आता है और अनियमित ढंग से घटता-बढ़ता है। मिचली, वमन, हृदयदौर्बल्य तथा अवसन्नता, तिल्ली बढ़ना और रक्तस्त्रावी दाने निकलना, जिससे शरीर काला पड़ जाता है और रोग का काली मौत नाम सार्थक होता है।

इस रोग के नौ रूप ज्ञात हैं : (1) गिल्टीवाला प्लेग (ताऊन, ब्यूबोनिक प्लेग), जिसमें अंगपीड़ा, सहसा आक्रमण, तीव्र ज्वर तथा त्वरित नाड़ी होती है, दो तीन दिन में गिल्टी निकलती है और दो सप्ताह में पक जाती है;

(2) रक्तपूतित प्लेग घातक प्रकार है, जिसमें रक्त में जीवाणु वर्तमान होते हैं;

(3) न्यूमोनिक प्लेग, जिसमें रोग का आक्रमणकेंद्र फेफड़ा होता है। यह अत्यंत घातक प्रकार है और तीन चार दिन में प्राण हर लेता है;

(4) आंत्रिक प्लेग;

(5) प्रमस्तिष्कीय प्लेग;

(6) कोशिका त्वचीय प्लेग, जिसमें त्वचा पर कारबंकल से फोड़े निकल आते हैं;

(7) स्फोटकीय प्लेग, जिसमें शरीर में दाने निकलते हैं;

(8) गुटिका प्लेग, जिसमें रोग कंठ में होता है तथा

(9) अवर्धित प्लेग तथा जो प्लेग का हल्का आक्रमण है और जिसमें केवल गिल्टी निकलती है।

उपचार और रोकथाम

नई औषधियों के आगमन से पूर्व प्लेग का उपचार था, चूहों का विनाश और चूहे गिरने पर स्थान छोड़ देना। आज रोकथाम के लिए प्लेग का टीका सक्षम है। प्लेग की सवारी जीवाणु, पिस्सू और चूहे के त्रिकोण पर बैठकर चलती है और जीवावसादक से जीवाणु, कीटनाशक (10ऽ डी.डी.टी.) से पिस्सू और चूहा विनाशक उपायों से चूहों को मारकर प्लेग का उन्मूलन संभव है। जीवावसादकों में स्ट्रेप्टोमाइसिन तथा सल्फा औषधियों में सल्फाडाज़ीन और सल्फामेराज़ीन इनके विरुद्ध कारगर है। आधुनिक चिकित्सा ने प्लेग की घातकता नष्टप्राय कर दी है।

बाहरी कड़ियाँ


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