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इनफ़्लुएंज़ा
इन्फ़्लुएन्ज़ा (श्लैष्मिक ज्वर) एक विशेष समूह के वायरस के कारण मानव समुदाय में होनेवाला एक संक्रामक रोग है। इसमें ज्वर और अति दुर्बलता विशेष लक्षण हैं। फुफ्फुसों के उपद्रव की इसमें बहुत संभावना रहती है। यह रोग प्राय: महामारी के रूप में फैलता है। बीच-बीच में जहाँ-तहाँ रोग होता रहता है।
इन्फ़्लुएन्ज़ा के वायरस एवं बीमारी
सन् 1933 में SMITH ANDREW और LADLO ने इन्फ़्लुएन्ज़ा के वाइरस-ए का पता पाया। FRANCIS और मैगिल ने 1940 में वायरस-बी का आविष्कार किया और सन् 1948 में TAYLOR ने वायरस-सी को खोज निकाला। इनमें से वायरस-ए ही इन्फ़्लुएन्ज़ा के रोगियों में अधिक पाया जाता है। ये वायरस गोलाकार होते हैं और इनका व्यास 100 म्यू के लगभग होता है (1 म्यू थ्र् मिलीमीटर)। रोग की उग्रावस्था में श्वसनतंत्र के सब भागों में यह वायरस उपस्थित पाया जाता हे। SPUTUM ) और नाक से निकलनेवाले MUCUS में तथा SPIT में यह सदा उपस्थित रहता है, किंतु शरीर के अन्य भागों में नहीं। नाक और गले के में प्रथम से पाँचवें और कभी-कभी छठे दिन तक वायरस मिलता है। इन तीनों प्रकार के वायरसों में उपजातियाँ भी पाई जाती हैं।
इन्फ़्लुएन्ज़ा की प्राय: महामारी फैलती है जो स्थानीय ( Bअथवा अधिक व्यापक हो सकती है। कई स्थानों, प्रदेशों या देशों में रोग एक ही समय उभड़ सकता है। कई बार सारे संसार में यह रोग एक ही समय फैला है। इसका विशेष कारण अभी तक नहीं ज्ञात हुआ है।
रोग की महामारी किसी भी समय फैल सकती है, यद्यपि जाड़े में या उसके कुछ आगे पीछे अधिक फैलती है। इसमें आवृत्तिचक्रों में फैलने की प्रवृत्ति पाई गई है, अर्थात् रोग नियत कालों पर आता है। वायरस-ए की महामारी प्रति दो तीन वर्ष पर फैलती है। वायरस-बी की महामारी प्रति चौथे या पाँचवें वर्ष फैलती है। वायरस-ए की महामारी बी की अपेक्षा अधिक व्यापक होती है। भिन्न-भिन्न महामारियों में आक्रांत रोगियों की संख्या एक से पाँच प्रतिशत से 20-30 प्रतिशत तक रही है। स्थानों की तंगी, गंदगी, खाद्य और जाड़े में वस्त्रों की कमी, निर्धनता आदि दशाएँ रोग के फैलने और उसकी उग्रता बढ़ाने में विशेष सहायक होती हैं। सघन बस्तियों में रोग शीघ्रता से फैलता है और शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। दूर-दूर बसी हुई बस्तियों में दो से तीन मास तक बना रहता है। रोगी के गले और नासिका के स्राव में वायरस रहता है और उसी के निकले छींटों द्वारा फैलता है (ड्रॉपलेट इनफ़ेक्शन से रोग होता है)। इन्हीं अंगों में रोक का वायरस घुसता भी है। रोगवाहक व्यक्ति नहीं पाए गए हैं, न रोग के आक्रमण से रोग-प्रतिरोध-क्षमता उत्पन्न होती है। छह से आठ महीने पश्चात् फिर उसी प्रकार का रोग हो सकता है।
रोग का उद्भवकाल एक से दो दिन तक होता है। रोग के लक्षणों में कोई विशेषता नहीं पाई जाती। केवल ज्वर और अतिदुर्बलता ही इस रोग के लक्षण हैं। इनका कारण वायरस में उत्पन्न हुए जैवविष (टॉक्सिन) जान पड़ते हैं। भिन्न-भिन्न महामारियों में इनकी तीव्रता विभिन्न पाई गई है। ज्वर और दुर्बलता के अतिरिक्त सिरदर्द, शरीर में पीड़ा (विशेषकर पिंडलियों और पीठ में), सूखी खाँसी, गला बैठ जाना, छींक आना, आँख और नाक से पानी बहना और गले में क्षोभ मालूम होना, आदि लक्षण भी होते हैं। ज्वर 101 से 103 डिग्री तक निरंतर दो या तीन दिन से लेकर छह दिन तक बना रह सकता है। नाड़ी ताप की तुलना में द्रुत गतिवाली होती है। परीक्षा करने पर नेत्र लाल और मुख तमतमाया हुआ तथा चर्म उष्ण प्रतीत होता है। नाक और गले के भीतर की कला लाल शोथयुक्त दिखाई देती है। प्राय: वक्ष या फुफ्फुस में कुछ नही मिलता। रोग के तीव्र होने पर ज्वर 105 C से 106 C तक पहुँच सकता है।
इस रोग का साधारण उपद्रव ब्रोंको न्यूमोनिया है जिसका प्रारंभ होते ही ज्वर 104 C तक पहुँच जाता हैं। श्वास का वेग बढ़ जाता है, यह 50-60 प्रति मिनट तक हो सकता है। नाड़ी 110 से 120 प्रति मिनट हो जाती है, किंतु श्वासकष्ट नहीं होता। सपूय श्वासनलिकार्ति (प्युरुलेंट ब्रॉनकाइटिस) भी उत्पन्न हो सकती है। खाँसी कष्टदायक होती है। श्लेष्मा झागदार, श्वेत अथवा हरा और पूययुक्त तथा दुर्गंधयुक्त हो सकता है। रक्तमिश्रित होने से वह भूरा या लाल रंग का हो सकता है। फुफ्फुस की परीक्षा, करने पर विशेष लक्षण नहीं मिलते। किंतु छाती ठोंकने पर विशेष ध्वनि, जिसे अंग्रेजी में राल कहते हैं, मिल सकती है।
इस रोग का आंत्रिक रूप भी पाया जाता है जिसमें रक्तयुक्त अतिसार, वमन, जी मिचलना और ज्वर होते हैं।
रोग के अन्य उपद्रव भी हो सकते हैं। स्वस्थ बालकों और युवाओं में रोगमुक्ति की बहुत कुछ संभावना होती है। रोगी थोड़े ही समय में पूर्ण स्वास्थ्यलाभ कर लेता है। अस्वस्थ, अन्य रोगों से पीड़ित, दुर्बल तथा वृद्ध व्यक्तियों में इतना पूर्ण और शीघ्र स्वास्थ्यलाभ नहीं होता। उनमें फुफ्फुस संबंधी अन्य रोग उत्पन्न हो सकते हैं।
रोगरोधक चिकित्सा
महामारी के समय अधिक मनुष्यों का एक स्थान पर एकत्र होना अनुचित है। ऐसे स्थान में जाना रोग का आह्वान करना है। गले को पोटास परमैंगनेट के 1 : 4000 के घोल से प्रात: सायं दोनों समय गरारा करके स्वच्छ करते रहना आवश्यक है। इनफ्लूएँजा वायरस की वैक्सीन का इंजेक्शन लेना उत्तम है। इससे रोग की प्रवृत्ति कम हो जाती है। दो से लेकर 12 महीने तक यह क्षमता बनी रहती है। किंतु यह क्षमता निश्चित या विश्वसनीय नहीं है। वैक्सीन लिए हुए व्यक्तियों को भी रोग हो सकता है।
इस रोग की कोई विशेष चिकित्सा अभी तक ज्ञात नहीं हुई है। चिकित्सा लक्षणों के अनुसार होती है और उसका मुख्य उद्देश्य रोगी के बल का संरक्षण होता है। जब किसी अन्य संक्रमण का भी प्रवेश हो गया हो तभी सल्फा तथा जीवाणुद्वेषी (ऐंटिबायोटिक) औषधियों का प्रयोग करना चाहिए।
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बाहरी कड़ियाँ
- पूरी दुनिया में फ्लू का संक्षिप्त इतिहास (भास्कर)
- Info on influenza at CDC
- BioHealthBase Bioinformatics Resource Center Database of influenza sequences and related information.
- Influenza (Mayo Clinic)
- Fact Sheet Overview of influenza at World Health Organization
- Health encyclopedia entry at NHS Direct
- Overview of influenza at MedicineNet
- Congressional Research Service (CRS) Reports regarding Influenza Law-related government reports at University of North Texas
- Influenza Surveillance and Contingency Plans (by country/region)
- Orthomyxoviridae The Universal Virus Database of the International Committee on Taxonomy of Viruses
- Influenza Virus Resource from the NCBI
- European Influenza Surveillance Scheme
- Review of Influenza origin, virology, clinical syndromes and management from thenakedscientists.com at Cambridge University Pathology Dept.
- Flu Trends – flu activity across the U.S.
- Cold and flu advice (NHS Direct)