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सामाजिक पूँजी

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सामाजिक पूँजी (social capital) के विचार को नये सिरे से प्रासंगिक बनाने का श्रेय अमेरिकी समाज-विज्ञान को जाता है। फ़्रांसीसी समाजशास्त्री एमील दुर्ख़ाइम के समय से ही इससे मिलती- जुलती धारणाओं पर ग़ौर किया जाता रहा है, पर बीसवीं सदी के आख़िरी दशक में अमेरिकी समाज-विज्ञान के हलकों ने इस पर नये लहजे में बहस शुरू की। अमेरिकी समाज में नागरिक संस्थाओं की गिरती हुई सदस्यता से पैदा हुए सरोकारों की इस बहस के पीछे मुख्य भूमिका रही। समाज वैज्ञानिकों ने देखा कि महामंदी और विश्वयुद्ध के बाद पैदा हुई पीढ़ी के तिरोहित हो जाने और मनोरंजन के इलेक्ट्रॉनिक साधनों के सहारे घर की दुनिया में कैद हो जाने की प्रवृत्ति के कारण अमेरिका में सामाजिक संस्थाओं की गतिविधियाँ ठप पड़ गयी हैं। इसके प्रति अनुक्रिया करते हुए रॉबर्ट पुटनैम ने सामाजिक पूँजी की अवधारणा को टटोला। दुर्ख़ाइम के समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में जो सूत्रीकरण सामाजिक एकजुटता और उसके मैकेनेकिल और ऑर्गनिक आयामों के रूप में उभरता है, उसी से मिलता-जुलता परिप्रेक्ष्य पुटनैम के विमर्श में दिखाई पड़ता है। सामाजिक पूँजी के सिद्धांत के मर्म में आग्रह यह है कि सामाजिक नेटवर्कों के महत्त्व को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि सामाजिक संपर्क व्यक्तियों और उनके समूहों की उत्पादकता को प्रभावित करते हैं। लोग विभिन्न मकसदों से अपने सम्पर्कों और रिश्तों को एक महत्त्वपूर्ण संसाधन की तरह इस्तेमाल करते हैं। वे जैसे ही किसी समस्या में फँसते हैं या उनके जीवन में कोई परिवर्तन होता है, वे दोस्तों, नाते-रिश्तों और परिजनों को आवाज़ देते हैं। लोगों का समूह आपस में जुड़ कर अपने समान हितों को साधने का प्रयास करता है। इसी बात को व्यापक धरातल पर इस प्रकार कहा जा सकता है कि सामाजिक संगठन के सभी रूप अंतर्वैयक्तिक संबंधों के धागों से बँधे होते हैं।

नब्बे के दशक के मध्य में रॉबर्ट पुटनैम ने इस प्रश्न पर कई विवादात्मक लेख लिखे। इसके बाद 2000 में तथ्यों- आँकड़ों से भरी हुई उनकी विश्लेषणात्मक पुस्तक बौलिंग एलोन प्रकाशित हुई जिसके पन्नों पर दर्ज एक विचलित कर देने वाली छवि ने सभी का ध्यान आकर्षित किया। इस किताब में पुटनैम दिखाते हैं कि अमेरिकी लोग एक बौलिंग एली में अकेले ही खेल रहे हैं जबकि कुछ समय पहले तक वहाँ विभिन्न टीमें एक संगठित लीग के तहत आपस में खेला करती थीं। नब्बे के दशक में हुई बहस से पहले सामाजिक पूँजी के विचार के साथ समुदाय की अवधारणा नहीं जोड़ी जाती थी। पर, पुटनैम और उनके साथियों ने तर्क दिया कि सामाजिक पूँजी की अहमियत व्यक्ति तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वह एक व्यापक सामाजिक हित की गारंटी भी करती है। सामाजिक पूँजी के स्तर में गिरावट आने पर समुदाय के अस्तित्व पर ही विपरीत असर पड़ता है।

पुटनैम के प्रयासों से राजनीतिक समाजशास्त्र की उन परम्पराओं में नयी जान पड़ी जिनके तहत माना जाता था कि स्वयंसेवी संस्थाएँ व्यक्तियों को आपस में सूत्रबद्ध करके एक व्यापक संसार की रचना करती हैं। उन्नीसवीं सदी में अलैक्सिस द टॉकवील ने अमेरिकी लोकतंत्र से संबंधित अपने विख्यात अवलोकनों में दिखाया था कि किस तरह विभिन्न हित-समूह और नागरिक संगठन निरंतर अन्योन्यक्रिया के माध्यम से पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था की एकजुटता बनाये हुए हैं। ध्यान रहे कि युरोप के बारे में टॉकवील की मान्यता थी कि वहाँ स्थिरता लाने की यही भूमिका राजशाही और कुलीनतंत्र के नेतृत्व में जारी परम्पराओं ने निभायी है। पुटनैम के विचारों की प्रासंगिकता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि मीडिया ने उन्हें हाथो-हाथ लिया और उनका प्रभाव समाज-विज्ञान के दायरों के परे चला गया। अनगिनत रेडियो और टीवी कार्यक्रमों में उन्हें अपनी बात कहने का मौका मिला। दो अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने उनसे राय ली और कई युरोपीय प्रधानमंत्रियों ने उनके विचारों पर ग़ौर किया। पुटनैम से पहले दूसरे बुद्धिजीवी सामाजिक रिश्तों और नेटवर्कों के आईने में विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक परिघटनाओं की जाँच का प्रयास कर चुके थे। जेन जैकब्स द्वारा विभिन्न शहरों में होने वाले अपराधों के बीच फ़र्क का पता लगाने के लिए सामाजिक रिश्तों की असमानता का अध्ययन किया चुका था। इसी विचार के आधार पर फ़्रांसीसी समाजशास्त्री पिएर बोर्दियो भिन्न दिशा में सामाजिक- आर्थिक ग़ैर-बराबरी के पुनरुत्पादन की व्याख्या कर चुके थे। बोर्दियो ने अपने साथी लोइक वाकाँ के साथ प्रकाशित रचना में लिखा था कि सामाजिक पूँजी ऐसे वास्तविक और निराकार संसाधनों का योगफल है जो किसी व्यक्ति या समूह को किसी सामाजिक नेटवर्क की सदस्यता की बदौलत हासिल होते हैं। ये नेटवर्क आपसी जान-पहचान के कमोबेश संस्थागत रूप ले चुके संबंधों के ज़रिये टिके रहते हैं। व्यक्ति अपनी सामाजिक पूँजी के आधार पर हासिल की गयी उस सामाजिक-आर्थिक हैसियत को अगली पीढ़ी के हवाले कर पाता है जो उसने प्रभावशाली परिजनों, महँगे स्कूलों में पढ़ने वाले अपने सहपाठियों और किसी ख़ास क्लब के साथी सदस्यों की सोहबत के बदौलत हासिल की होती है। इस सामाजिक पूँजी को लगातार प्रासंगिक और प्रभावी रखने के लिए व्यक्ति आपसी मेल-जोल में अपने समय का योजनाबद्ध निवेश करता है।

इस व्याख्या से स्पष्ट है कि बोर्दियो साठ के दशक में प्रचलित वर्ग-विश्लेषण के नव-मार्क्सवादी दायरे में चिंतन कर रहे थे। उनकी दिलचस्पी यह दिखाने में थी कि अभिजनों के समूह किस तरह अपनी सत्ता की निरंतरता बनाये रखते हैं। इसके विपरीत जेम्स कोलमैन ने सामाजिक पूँजी की अवधारणा का इस्तेमाल करते हुए कई अफ़्रीकन-अमेरिकन हाई स्कूल छात्रों के बीच किये गये आनुभविक अध्ययनों के ज़रिये दिखाया कि परिवार और समुदाय द्वारा मिले हुए गुणों द्वारा कम आमदनी और अच्छे स्कूल में पढ़ने की सुविधा न मिल पाने जैसी कमियों की भरपाई हो जाती है। बच्चे के संज्ञानात्मक विकास में ऐसे गुण महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। कोलमैन एक ऐसे समाजशास्त्री थे जिनकी अर्थशास्त्र में काफ़ी दिलचस्पी थी। उन्होंने तर्कसंगत सामाजिक चयन सिद्धांत (रैशनल चॉयस थियरी) का आलोचना करते हुए कहा कि यह सिद्धांत व्यक्तिगत निजी-हित पर आधारित रवैये की तो व्याख्या कर लेता है, पर सहकारी व्यवहार और परोपकारी रवैये को नहीं समझ पाता। इस लिहाज़ से सामाजिक पूँजी का सिद्धांत रैशनल चॉयस थियरी की यह कमी पूरी कर देता है।

कहना न होगा कि बोर्दियो की निगाह में सामाजिक पूँजी की अवधारणा ऊँच-नीच कायम रखने में मददगार थी और कोलमैन उसे वंचित समूहों को आगे बढ़ाने में सहायक के तौर पर देख रहे थे। हालाँकि यह एक अहम मानकीय अंतर था, पर कुल मिला कर दोनों ही विद्वानों ने इस सिद्धांत के विभिन्न आयामों को समृद्ध किया। नब्बे के दशक में जब इसके इर्द-गिर्द बहस शुरू हुई तो इस सिद्धांत को नये सिरे से प्रश्नांकित किया गया और अपने-अपने तर्कों के पक्ष में ढेर सारी तथ्यगत दलीलें जुटायी गयीं। कुछ अध्ययनों से स्पष्ट हुआ कि सामाजिक नेटवर्कों का लाभ असामाजिक और अपराधिक मकसदों से भी उठाया जाता है। कुछ नेटवर्क ऐसे मूल्यों और आचरण-संहिताओं को मजबूत करते हैं जिनके प्रभाव के तहत लोग समस्याओं के ठीक से निदान करने में असमर्थ हो जाते हैं। बहस यह भी हुई कि इस सिद्धांत का कितना हिस्सा समाजशास्त्रीय है और कितना अर्थशास्त्री। इसी के तहत पूछा गया कि क्या पूँजी शब्द का इस्तेमाल इसमें केवल रूपक के तौर पर किया जा रहा है या सामाजिक पूँजी को बाकायदा नापा भी जा सकता है और उससे होने वाले मुनाफ़े की दर का भी पता लगाया जा सकता है।

1. रॉबर्ट डी. पुटनैम (2000), बौलिंग एलोन : द कलेप्स ऐंड रिवाइवल ऑफ़ अमेरिकन कम्युनिटी, साइमन एंज शुस्टर, न्यूयॉर्क.

2. पिएर बोर्दियो और लोइक वाकाँ (1992), ऐन इनविटेशन टू रिफ्लेक्सिव सोसियोलॅजी, युनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो प्रेस, शिकागो.

3. जेम्स कोलमैन (1994), फ़ाउंडेशन ऑफ़ सोशल थियरी, बेल्कनैप प्रेस, केम्ब्रिज, एमए.

4. जॉन फ़ील्ड (2003), सोशल कैपिटल, रॉटलेज, लंदन.


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