Мы используем файлы cookie.
Продолжая использовать сайт, вы даете свое согласие на работу с этими файлами.
सत्यनारायण शास्त्री
Другие языки:

सत्यनारायण शास्त्री

Подписчиков: 0, рейтинг: 0

पंडित सत्यनारायण शास्त्री (1887 -- 23 सितंबर 1969 ) आधुनिक आयुर्वेदजगत्‌ के प्रख्यात पंडित और चिकित्साशास्त्री थे। आयुर्वेद की धवल परंपरा को सजीव बनाए रखने के लिए आपने जीवन भर कार्य किया। उन्हें चिकित्सा विज्ञान क्षेत्र में पद्म भूषण से १९५४ में सम्मानित किया गया।

परिचय

जन्म सन्‌ 1887 ई. (संवत्‌ 1944 की माघ कृष्ण गणेश चतुर्थी) को नगर से 14 किमी पश्चिम में वाराणसी-भदोही मार्ग पर स्थित कुरौना नामक ग्राम में परासर गोत्रीय कुलीन सरयूपारीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। कहा जाता है कि इनके पूर्वज लगभग 700 वर्ष पूर्व देवरिया जिला के धमौली नामक ग्राम से पंचक्रोसी परिक्रमा के उद्देश्य से काशी आए थे तथा फिर यही रच बस गए।

इनके पिता पंडित बेलभद्र पाण्डेय विलक्षण पुत्र को शिक्षा-दिक्षा हेतु लेकर नगर में आए तथा दशाश्वमेध क्षेत्र के अगस्तकुंडा मुहल्ले में रहने लगे। अल्पायु में ही इन्होंने भाषा, गणित आदि विषयों का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। महामहोपाध्याय पं॰ गंगाधर शास्त्री तथा महामहोपाध्याय शिवकुमार शास्त्री से इन्होंने साहित्य, न्याय, विविध दर्शनों तथा अन्य विद्याओं का ज्ञान प्राप्त किया था। सत्यनारायण ने ज्योतिर्विद् जयमंगल ज्योतिषी से ज्योतिष का, योगिराज शिवदयाल शास्त्री से योग, वेदांग एवं तंत्र कविराज धर्मदास से आयुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की थी।

1925 ई. में ये काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आयुर्वेद महाविद्यालय के प्राध्यापक नियुक्त हुए और 1938 ई. में इसके प्रिंसिपल हो गए। वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय में आयुर्वेद विभाग खुलने पर वहाँ सम्मानित विभागाध्यक्ष और बाद में प्राचार्य नियुक्त हुए।

सन्‌ 1950 ई. में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद ने आपको अपना निजी चिकित्सक नियुक्त किया और उनकी मृत्यु तक उनके निजी चिकित्सक रहे। इस रूप में भी आपने आयुर्वेदजगत्‌ का गौरववर्धन किया।

ये अखिल भारतीय सरयूपारीण पंडित परिषद् और काशीशास्त्रार्थ-महासभा के अध्यक्ष, काशी विद्वत्परिषद् और विद्वत्प्रतिनिधि-सभा के संरक्षक भी थे। ये वाराणसेय शास्त्रार्थ महाविद्यालय के स्थायी अध्यक्ष और आयुर्वेद महाविद्यालय, वाराणसी के संस्थापक भी थे। 1938 ई. में ये हिंदू विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि के रूप में भारतीय चिकित्सा परिषद के सदस्य चुने गए थे।

काशी की परंपरा के अनुसार प्रारंभ से ही शास्त्री जी गरीब तथा असहाय विद्यार्थियों को सहायता देकर घर पर ही उन्हें विद्यादान देते रहे।

सन्‌ 1955 ई में 'पद्मभूषण' के अलंकरण से आपको विभूषित किया गया। आपकी यह उपाधि-भारत सरकार द्वारा संस्कृत और आयुर्वेद के प्रति की गई सेवाओं के लिए प्रदान की गई। किंतु 1967 ई. में हिंदी आंदोलन के समय जब नागरीप्रचारिणी सभा, काशी ने हिंदीसेवी विद्वानों से सरकारी अलंकरण के त्याग का अनुरोध किया तब आपने भी अलंकरण का त्याग कर दिया। नाड़ीज्ञान तथा रोगनिदान के पाप अन्यतम आचार्य थे। रोगी की नाड़ी देखकर रोग और उसके स्वरूप का सटीक निदान तत्काल कर देना अपकी सबसे बड़ी विशेषता रही।

23 सितंबर 1969, मंगलवार को 82 वर्ष की आयु में अगस्तकुंडा स्थित निवासस्थान पर शास्त्री जी का देहांत हो गया। आप "मां काली" तथा "बाबा विश्वनाथ" के अनन्य भक्त थे। मृत्यु के कुछ देर पूर्व आपने कहा - 'अब त्रयोदशी हो गई, अच्छा मुहूर्त आ गया है।' आपने पद्मासन लगाकर बैठने की कोशिश की किंतु वह संभव न हो पाने के कारण आपने प्राणायाम किया और कुछ श्लोकों का उच्चारण करते हुए प्राण त्याग दिए।

इन्हें भी देखें


Новое сообщение