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सच का सीरम
सच की दवा या सच का सीरम एक मनोसक्रियण औषधि है जिसे उन व्यक्तियों से जानकारी प्राप्त करने के लिए दिया जाता है जो या तो उस जानकारी को प्रदान करने में असमर्थ होते हैं या फिर वो उसे उपलब्ध कराने को तैयार नहीं होते। किसी व्यक्ति को दवा दे कर जानकारी प्राप्त करने की यह विधि नार्को परीक्षण कहलाती है। अंतरराष्ट्रीय कानून के वर्गीकरण के अनुसार सच की दवाओं का अनैतिक प्रयोग यातना की श्रेणी में आता है, हालांकि, मनोचिकित्सा के अंतर्गत इनका प्रयोग उचित रूप से मनोरोगियों के व्यवहार के मूल्यांकन में किया जाता है। इनका पहला ज्ञात प्रयोग 1930 में डॉ॰ विलियम ब्लेकवेन द्वारा दर्ज किया गया था और आज भी कुछ चुनिंदा मामलों में इनका प्रयोग किया जाता है।
आज के संदर्भ में, सम्मोहन (कृत्रिम निद्रावस्था) दवाओं का नियंत्रित अंतःशिरा आधान नार्कोसंश्लेषण या नार्कोविश्लेषण कहा जाता है। इसका प्रयोग नैदानिक या चिकित्सीय संबंधी-महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करने और इससे कैटाटोनिया या उन्माद से पीड़ित रोगियों को कार्यात्मक राहत प्रदान करने मे किया जा सकता है।
सक्रिय रसायनिक पदार्थ
वो शामक या स्वापक जो उच्च संज्ञानात्मक कार्यों को परिवर्तित कर सकते हैं उनमें, इथेनॉल, स्कॉपोलैमाइन, 3-क़्विनुक्लिडाइनिल बेन्ज़ीलेट, टेमाज़ीपाम और कई अन्य बार्बिट्यूरेट जिसमें थाओपेंटल (सामान्यतः सोडियम पेंटोथल के नाम से जाना जाता है) और सोडियम एमाइटल (एमोबार्बिटल) शामिल हैं।
विश्वसनीयता
आधुनिक चिकित्सीय विचारों के अनुसार सोडियम एमाइटल के प्रभाव मे जुटाई गयी सूचना अविश्वसनीय हो सकती है। दवा के प्रभाव में व्यक्ति तथ्यों के साथ कल्पना को जोड़ कर सूचना प्रदान कर सकता है। संदेहवादियों के मतानुसार दवा के प्रभाव संबंधी अधिकतर दावे व्यक्ति की इस सोच पर निर्भर होते हैं कि वो दवा के प्रभाव में झूठ नहीं बोल सकता। कुछ प्रेक्षकों के अनुसार एमोबार्बिटल के प्रभाव में व्यक्ति अधिक सच बोलने के बजाय ज्यादा बोलने लगता है और इस कारण जानकारी जुटाने की प्रक्रिया के दौरान सच और कल्पना दोनों के ही उजागर होने की संभावना रहती है।