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श्वसन तंत्र
श्वसन तंत्र (respiratory system) = 1.नाक 2.गृसनि 3.श्वासनली 4.कंठ 5.उपस्थित वलय 7.फुफस 8.स्वानिका 9.वायु 10.कोपिका
अनुक्रम
मुख्य अंग
नाक
सांस लेने के दो रास्ते हैं- एक सही रास्ता दूसरा गलत रास्ता। नाक द्वारा सांस लेना सही रास्ता है किन्तु मुंह से सांस लेना गलत है। हमेशा नाक से ही सांस लेनी चाहिए क्योंकि नाक के अन्दर छोटे-छोटे बाल होते हैं। ये बाल हवा में मिली धूल को बाहर ही रोक लेते हैं, अन्दर नहीं जाने देते। मुंह से सांस कभी नहीं लेनी चाहिए क्योंकि ऐसा करने से हवा (सांस) के साथ धूल और हानिकारक कीटाणु भी अन्दर चले जाlते हैं।
सांस-नली
यह प्राय: साढ़े चार इंच लम्बी, बीच में खोखली एक नली होती है, जो गले में टटोली जा सकती है। यह भोजन की नली (अन्न नाल) के साथ गले से नीचे वक्षगहर में चली जाती है। वक्षगहर में, नीचे के सिरे पर चलकर इसकी दो शाखाएं हो गई हैं। इसकी एक शाखा दाएं फेफड़े में और दूसरी बाएं फेफड़े में चली गई है। ये ही दोनों शाखाएं वायु नली कहलाती हैं। श्वास नली और वायु नली फेफड़े में जाने के प्रधान वायु पथ हैं।
स्वरयंत्र
जीभ के मूल के पीछे, कण्ठिकास्थि के नीचे और कण्ठ के सामने स्वरयंत्र (Larynx) होता है। नाक से ली हुई हवा कण्ठ से होती हुई इसी में आती है। इसके सिरे पर एक ढक्कन-सा होता है। जिसे ‘स्वर यंत्रच्छद’ कहते हैं। यह ढकन हर समय खुला रहता है किन्तु खाना खाते समय यह ढक्कन बन्द हो जाता है जिससे भोजन स्वरयंत्र में न गिरकर, पीछे अन्नप्रणाली में गिर पड़ता है। कभी-कभी रोगों के कारण या असावधानी से जब भोजन या जल का कुछ अंश स्वरयंत्र में गिर पड़ता है तो बड़े जोर से खांसी आती है। इस खांसी आने का मतलब यह है कि जल या भोजन का जो अंश इसमें (स्वरयंत्र में) गिर पड़ा है, यह बाहर निकल जाए।
भोजन को हम निगलते हैं तो उस समय स्वरयंत्र ऊपर को उठता और फिर गिरता हुआ दिखाई देता है। इसमें जब वायु प्रविष्ठ होती है तब स्वर उत्पन्न होता है। इस प्रकार यह हमें बोलने में भी बहुत सहायता प्रदान करता है।
फुफ्फुस
हमारी छाती में दो फुफ्फुस (फेफड़े) होते हैं - दायां और बायां। दायां फेफड़ा बाएं से एक इंच छोटा, पर कुछ अधिक चौड़ा होता है। दाएं फेफड़े का औसत भार 23 औंस और बाएं का 19 औंस होता है। पुरुषों के फेफड़े स्त्रियों के फुफ्फुसों से कुछ भारी होते हैं।
फुफ्फुस चिकने और कोमल होते हैं। इनके भीतर अत्यन्त सूक्ष्म अनन्त कोष्ठ होते हैं जिनको ‘वायु कोष्ठ’ (Air cells) कहते हैं। इन वायु कोष्ठों में वायु भरी होती है। फेफड़े युवावस्था में मटियाला और वृद्धावस्था में गहरे रंग का स्याही मायल हो जाता है। ये भीतर से स्पंज-समान होते हैं।
फेफड़े के कार्य
दोनों फुफ्फुसों के मध्य में हृदय स्थित रहता है। प्रत्येक फुफ्फुस को एक झिल्ली घेरे रहती है ताकि फूलते और सिकुड़ते वक्त फुफ्फुस बिना किसी रगड़ के कार्य कर सकें। इस झिल्ली में विकार उत्पन्न होने पर इसमें शोथ हो जाता है जिसे प्लूरिसी (pleurisy / फुप्फुसावरणशोथ) नामक रोग होना कहते हैं। जब फेफड़ो में शोथ होता है तो इसे [श्वसनीशोथ/श्वसनिका शोथ] होना कहते हैं। जब फुफ्फुसों से क्षय होता है तब उसे यक्ष्मा या क्षय रोग, तपेदिक, टी.बी. होना कहते हैं।
फेफडों के नीचे एक बड़ी झिल्ली होती है जिसे वक्षोदर मध्यपट या डायाफ्राम कहते हैं जो फेफड़ो और उदर के बीच में होती है। सांस लेने पर यह झिल्ली नीचे की तरफ फैलती है जिससे सांस अन्दर भरने पर पेट फूलता है और बाहर निकलने पर वापिस बैठता है।
फेफड़ों का मुख्य काम शरीर के अन्दर वायु खींचकर ऑक्सीजन उपलब्ध कराना तथा इन कोशिकाओं की गतिविधियों से उत्पन्न होने वाली कार्बन डाईऑक्साइड नामक वर्ज्य गैस को बाहर फेंकना है। यह फेफड़ों द्वारा किया जाने वाला फुफ्फुसीय वायु संचार कार्य है जो फेफड़ों को शुद्ध और सशक्त रखता है। यदि वायुमण्डल प्रदूषित हो तो फेफड़ों में दूषित वायु पहुंचने से फेफड़े शुद्ध न रह सकेंगे और विकारग्रस्त हो जाएंगे।
श्वास-क्रिया दो खण्डों में होती है। जब सांस अन्दर आती है तब इसे "अंतःश्वसन" कहते हैं। जब यह श्वास बाहर हो जाती है तब इसे "उच्छवसन"कहते हैं। प्राणायाम विधि में इस सांस को भीतर या बाहर रोका जाता है। सांस रोकने को कुम्भक कहा जाता है। भीतर सांस रोकना आंतरिक कुम्भक और बाहर सांस रोक देना बाह्य कुम्भक कहलाता है। प्राणायाम ‘अष्टांग योग’ के आठ अंगों में एक अंग है। प्राणायाम का नियमित अभ्यास करने से फेफड़े शुद्ध और शक्तिशाली बने रहते हैं। फुफ्फुस में अनेक सीमान्त श्वसनियां होती हैं जिनके कई छोटे-छोटे खण्ड होते हैं जो वायु मार्ग बनाते हैं। इन्हें उलूखल कोशिका कहते हैं। इनमें जो बारीक-बारीक नलिकाएं होती हैं वे अनेक कोशिकाओं और झिल्लीदार थैलियों के जाल से घिरी होती हैं। यह जाल बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य करता है क्योंकि यहीं पर फुफ्फुसीय धमनी से ऑक्सीजन विहीन रक्त आता है और ऑक्सीजनयुक्त होकर वापस फुफ्फुसीय शिराओं में प्रविष्ठ होकर शरीर में लौट जाता है। इस प्रक्रिया से रक्त शुद्धी होती रहती है। यहीं वह स्थान है जहां उलूखल कोशिकाओं में उपस्थित वायु तथा वाहिकाओं में उपस्थित रक्त के बीच गैसों का आदान-प्रदान होता है जिसके लिए सांस का आना-जाना होता है।
श्वसन क्रिया
सांस लेने को ‘श्वास’ और सांस छोड़ने को ‘प्रश्वास’ कहते हैं। इस ‘श्वास-प्रश्वास क्रिया’ को ही ‘श्वसन क्रिया’ (Respiration) कहते हैं।
श्वास-गति (Breathing Rate)
साधारणत: स्वस्थ मनुष्य एक मिनट में 16 से 20 बार तक सांस लेता है। भिन्न-भिन्न आयु में सांस संख्या निम्नानुसार होती है-
आयु | संख्या प्रति मिनट |
---|---|
दो महीने से दो साल तक | 35 प्रति मिनट |
दो साल से छ: साल तक | 23 प्रति मिनट |
छ: साल से बारह साल तक | 20 प्रति मिनट |
बारह साल से पन्द्रह साल तक | 18 प्रति मिनट |
पन्द्रह साल से इक्कीस साल तक | 16 से 18 प्रति मिनट |
उपर्युक्त श्वास-गति व्यायाम और क्रोध आदि से बढ़ जाया करती है किन्तु सोते समय या आराम करते समय यह श्वास-गति कम हो जाती है। कई रोगों में जैसे न्यूमोनिया, दमा, क्षयरोग, मलेरिया, पीलिया, दिल और गुर्दों के रोगों में भी श्वास-गति बढ़ जाती है। इसी प्रकार ज्यादा अफीम खाने से, मस्तिष्क में चोट लगने के बाद तथा मस्तिष्क के कुछ रोगों में यही श्वास गति कम हो जाया करती है।
== रोग टाईफाईड
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- श्वसन संस्थान (जेके वर्ल्ड)
- श्वसन संस्थान (जेके वर्ल्ड)
- प्राणायाम का वैज्ञानिक रहस्य -डॉ॰ मनोहर भंडारी (एम.बी.बी.एस., एम.डी. (फिजियोलॉजी)
- A high school level description of the respiratory system
- Introduction to Respiratory System
- Science aid: Respiratory System A simple guide for high school students
- The Respiratory System University level