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मनोरोग विज्ञान
मनोरोग विज्ञान या मनोरोग विद्या (Psychiatry) चिकित्सा क्षेत्र की एक विशेषज्ञता (specialty) है जो मनोविकारों का अध्ययन करती है।
अनुक्रम
परिचय
मनोविकार विज्ञान आधुनिक युग का एक नवीन विज्ञान है। 20वीं सदी में ही इस विज्ञान के विभिन्न अंगों में महत्व की खोजें हुई हैं। 19वीं शताब्दी तक विभिन्न प्रकार के मनोविकार ऐसे रोग माने जाते थे जिनका साधारण चिकित्सक से कोई संबंध नहीं था। जटिल मनोविकार की अवस्था में रोगी को मानसिक चिकित्सालयों में रख दिया जाता था, ताकि वह समाज के दूसरे लोगों का कोई नुकसान न कर सके। इन चिकित्सालयों में भी उसका कोई विशेष उपचार नहीं होता था। चिकित्सकों को वास्तव में उसकी चिकित्सा के विषय में स्पष्ट ज्ञान ही न था कि चिकित्सा कैसे की जाय।
अब परिस्थिति बदल गई है। मनोविकार विज्ञान को एक अँधियारी कोठरी नहीं मान लिया गया है, जिसका संबंध थोड़े से मनोविक्षिप्त लोगों से है, वरन् यह विज्ञान इतना महत्व का विषय माना गया है कि इसका समुचित ज्ञान न केवल कुशल शारीरिक चिकित्सक को, वरन् समाज के प्रत्येक सेवक और कार्यकर्ता, शिक्षक, समाजसुधारक तथा राजनीतिक नेता को भी होना आवश्यक है। इतना ही नहीं, इसके ज्ञान की आवश्यकता प्रत्येक सुशिक्षित नागरिक को भी है। यदि कोई प्रबल मनोविकार मन में आ गया और हमें उसका ज्ञान नहीं हुआ, तो हम उससे मुक्त होने के लिये किसी विशेषज्ञ की सहायता भी न ले सकेंगे।
कोई भी व्यक्ति, जो पूर्ण स्वस्थ है और जिसकी बुद्धि की सभी लोग प्रशंसा करते हैं, अपने मन का संतुलन किसी समय खोकर विक्षिप्त हो सकता है। फिर वह समाज के लिये निकम्मा हो जाता है। मनुष्य को चाहिए कि वह ऐसी परिस्थितियों का ज्ञान कर ले जिससे वह किसी प्रकार की असाधारण मानसिक अवस्था में न आ जाय, अर्थात् मानसिक रोग से पीड़ित न हो जाय। फिर मानसिक चिकित्सा कराने के लिये भी मनोविकार विज्ञान में श्रद्धा होना आवश्यक है।
मनोविकार विज्ञान का विकास
मानव की विशेष आवश्यकता की पूर्ति के लिये मनोविकार विज्ञान का विकास हुआ। यह 20वीं शताब्दी की एक विशेष देन का परिणाम है। इस शती में मनुष्य की कार्यक्षमता और उसकी सुखसामग्रियों में कल्पनातीत अभिवृद्धि हुई है। उसकी तार्किक शक्ति और वैज्ञानिक चमत्कार अत्यधिक बढ़ गए हैं। इसके साथ साथ उसकी मानसिक क्रियाएँ भी पहले से कई गुनी बढ़ गई है। यह कोरी बकवाद नहीं हैं कि प्रतिभा और पागलपन एक दूसरे के पूरक हैं। बुद्धिविकास के साथ साथ विक्षिप्तता का भी विकास होता है। विज्ञान सुखद सामग्रियों में वृद्धि करता है, तो दु:खद परिस्थितियों का भी सृजन करता है। वह बाह्य परिस्थितियों के सुलझाव पैदा करने के साथ साथ नई मानसिक उलझनें भी उत्पन्न कर देता है। एक ओर विज्ञान मनुष्य की सुरक्षा बढ़ा देता है, तो दूसरी ओर अचिंत्य चिंताओं को भी उत्पन्न कर देता है। अतएव यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि 20वीं शताब्दी विक्षिप्तता की शताब्दी है। यदि इसने विक्षिप्तता को बढ़ाया है, तो उसके शमन के विशेष उपाय खोजना भी इसी का काम है। जो देश जितना ही सभ्यता में प्रगतिशील हे, उसमें विक्षिप्ततानिवारक चिकित्सक और चिकित्सालय भी उतने अधिक हैं। अतएव मनोविकारों के निवारण हेतु अनेक प्रकार की मनोवैज्ञानिक खोजें मानवविज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में हो रही है।
डाक्टर फ्रायड के पूर्व मानसिक रोगों की चिकित्सा के लिये डाक्टर लोग भौतिक ओषधियों का ही उपयोग प्राय: करते थे। कुछ लोग इन रोगों को शांत करने के लिये तंत्रोपचार का उपयोग करते थे। तंत्रोपचार का आधार विश्वास और निर्देश रहता है। आज भी इस विधि का उपयोग ग्रामीण अशिक्षित लोगों में अधिकतर होता है। बेल्जियम के प्रसिद्ध मानसोपचारक डा मेसमर ने सम्मोहन और निर्देश का व्यापक उपयोग मानसिक रोगों के उपचार में किया। इससे मनोजात शारीरिक रोगों का भी निवारण होता था। फ्रांस के ब्रन हीम और शारको नामक विद्वानों ने संमोहन की उपयोगिता मानसोपचार में बताई। रोगी अपनी संमोहित अवस्था में दबी मानसिक भावना को उगल देता था और इस प्रकार के रेचन से वह रोगमुक्त भी हो जाता था। फ्रांस के नेंसन के डाक्टर इमील कूये ने मानसिक रोगों के उपचार में निर्देश का उपयोग किया, परंतु इन सभी विधियों से मनोविकार विज्ञान की विशेष उन्नति नहीं हुई। इसके लिये मन का गंभीर प्रयोगात्मक अध्ययन करना आवश्यक था। यह काम डाक्टर फ्रायड ने किया। अब यह माना जाने लगा कि मन की विभिन्नताओं का ज्ञान किए बिना और उनमें चलनेवाली प्रक्रियाओं के जाने बिना किसी भी व्यक्ति को उसके मनोविकार से मुक्त नहीं किया जा सकता।
डाक्टर फ्रायड के अनुसार मन के तीन स्तर हैं : चेतन, अवचैतन और अचेतन। मन तीन प्रकार के कार्य भी करता है : इच्छाओं का निर्माण, उनका नियंत्रण और उनकी संतुष्टि। पहला काम भोगाश्रित मन का है, दूसरा काम नैतिक मन का है और तीसरा काम अहंकार का है। इच्छाओं का जन्म प्राय: अचेतन स्तर पर होता है, उनका नियंत्रण अवचेतन पर और उनकी संतुष्टि चेतन स्तर पर होती है। मनुष्य के भोगेच्छुक मन और नैतिक मन में प्राय: संघर्ष चलता रहता है। जब यह संघर्ष मनुष्य की चेतना में चलता है, तब वह दु:खदायक चाहे जितना भी हो पर रोग का कारण नहीं बनता, किंतु जब प्रयत्नपूर्वक कठोरता से किसी प्रबल इच्छा का दमन नैतिक मन के द्वारा हो जाता है, तब संघर्ष मानसिक चेतना के स्तर पर न होकर मनुष्य के अचेतन मन में होने लगता है। इस संघर्ष का होना ही मानसिक रोग है और व्यक्ति को इस संघर्ष से मुक्त करना उसकी मानसिक चिकित्सा है, जो मनोविकार विज्ञान का ध्येय है। इसके लिये रोगी को मानसिक शिथिलीकरण की अवस्था में लाया जाता है और फिर उसे अपने अप्रिय अथवा अनैतिक अनुभवों को स्मरण करने का निर्देश दिया जाता है। इसके लिये कुछ लोग अब भी संमोहन विधि का उपयोग करते हैं, परंतु फ्रायड रोगी का मनोविश्लेषण करते थे। इस विधि में रोगी को शांत और शिथिल अवस्था में लाकर मन में आनेवाले सभी विचारों और चित्रों को कहते जाने के लिये कहा जाता है। इस प्रकार कभी कभी रोगी बहुत पुराने अप्रिय अनुभवों को कह डालता है। जब वे अनुभव पूरे सजीव हो जाते हैं और रोगी उनके अनुसार लज्जा, ग्लानि, हर्ष, विषाद का उसी प्रकार अनुभव करता है, जैसा पहली बार किया था, तब उसके भावों का रेचन हो जाता और रोग के अनेक लक्षण समाप्त हो जाते हैं। रोगी का लाभ कोरी बौद्धिक स्मृति से नहीं होता, वरन् पुराने अनुभवों की सजीव स्मृति, अर्थात् भावपूर्ण स्मृति, से होता है।
जब किसी दमित भाव का रेचना होता है, तब वह पहले पहल मानसिक चिकित्सक पर ही आरोपित हो जाता है। भाव के बाहर आने के लिये रोगी का चिकित्सक के प्रति स्नेह का रुख होना नितांत आवश्यक है। जब तक रोगी और चिकित्सक में हृदय की एकता नहीं होती, दमित इच्छा अवचेतना के स्तर पर आती ही नहीं। फिर यह स्नेह दिन प्रति दिन बढ़ता जाता है। जैसे जैसे चिकित्सक पर रोगी की श्रद्धा बढ़ती जाती है, उसका रोग कम होता जाता है। अपने रोग से मुक्त होते समय रोगी चिकित्सक को बहुत प्यार करने लगता है। इस प्यार का बढ़ना और रोगमुक्ति एक ही तथ्य के दो पहलू हैं। अब चिकित्सक का कर्त्तव्य होता है कि वह रोगी के प्रेम के आवेग को उसके उचित पात्र पर मोड़ दे, अथवा उसका उपयोग किसी रचनात्मक कार्य में कराए। चिकित्सक रोगी को भावात्मक रचनावलंबन प्राप्त कराने का प्रयास करता रहता है। वह उसे अपने आपका ज्ञान बढ़ाने के लिये प्रोत्साहित करता है। रोगी को रोगमुक्त तभी समझा जा सकता है, जब वह न केवल रोग के सभी लक्षणों से मुक्त हो गया हो, वरन् उसे भावात्मक स्वावलंबन और आत्म सुझ प्राप्त हो गए हों। मनोविकार विज्ञान इसी मनोदशा की प्राप्ति का साधन है।
मानसिक चिकित्साविज्ञान की नई खोजें मनोविज्ञान के अतिरिक्त दूसरी दिशाओं में भी हुई हैं। इनमें से दो प्रधान हैं :
- (1) भौतिक ओषधियों के द्वारा निद्रा अथवा अचेतन अवस्था को ले आना और
- (2) बिजली के झटकों द्वारा मानसिक रोगी को बेहोश करना तथा उसके दमित भावों का लक्षणात्मक ढंग से रेचन करना।
मानसिक रोगी के मन में संघर्ष चलते रहने के कारण वह अनिद्रा का शिकार हो जाता है। अब यदि ऐसे व्यक्ति को किसी प्रकार नींद लाई जाय, तब संभव है कि उसका रोग हलका हो जाय। मानसिक रोगी को दो स्थलों पर सदा लड़ते रहना पड़ता है, एक भीतरी और दूसरी बाहरी। उसे बाहरी और भीतरी चिंताएँ सताती रहती हैं। इसके कारण वह असाधारण रुकावट का अनुभव करता है। इससे वह अपनी नींद खो देता है। नींद के खो जाने से उसकी थकावट और भी बढ़ जाती है और फिर वह पागलपन की स्थिति में आ जाता है। यदि उसे नींद आने लगे, तो उसकी मानसिक शक्ति बहुत कुछ संचित हो जाय और वह अपनी बाहरी समस्याओं को हल करने में समर्थ हो जाय। इसके बाद उसकी भीतरी समस्याओं की भयंकरता भी कम हो जाती है। अतएव जो भी ओषधि रोगी को नींद ला दे, वह उसे लाभप्रद होती है। इसके लिये भारतीय आयुवैदिक ओषधि सर्पगंधा है, या ऐलोपैथिक विधि से बनी निद्रा लानेवाली टिकिया हैं।
जटिल मानसिक रोगों से पीड़ित व्यक्ति को कभी कभी अचेतन अवस्था में लाया जाता है। इसके लिये उसे इंसुलीन का इंजेक्शन दिया जाता है। इसके देने के बाद रोगी इधर उधर छटपटाता है और शारीरिक ऐंठन व्यक्त करता है। बार बार इंजेक्शन देने पर रोगी की तोड़ फोड़, मारपीट की प्रवृत्ति शांत हो जाती है। उसका मन शिथिलीकरण की अवस्था में आ जाता है। इससे फिर रोगी स्वाभाविक रूप से स्वास्थ्य लाभ करता है। इसी प्रकार का उपचार बिजली के झटकों से भी होता है। इनसे रोगी को अर्धचेतन अथवा अचेतन अवस्था में लाया जाता है। उसकी चेष्टाएँ प्रतीक रूप से दमित भावों का रेचन करती हैं। जटिल रोगियों के उपचार में प्राय: बिजली के झटकों से ही काम लिया जाता है। जब इनका प्रयोग पहले पहल हुआ था, तब इस उपचार विधि से बड़ी आशा हुई थी, पर ये सभी आशाएँ पूरी नहीं हुईं।
कुछ मानसिक रोगों की चिकित्सा प्राकृतिक ढंग से भी होती है। रोगी अपने जटिल कामों को छोड़ जब प्रकृति में भावलीन होने लगता है, तब उसे मानसिक साम्य स्वत: प्राप्त हो जाता है। हमारी वर्तमान सभ्यता में सामाजिक तनाव के अवसर अत्यधिक बढ़ गए हैं। जब मनुष्य अपनी साधारण दिनचर्या को छोड़ अपने मन को आराम देने लग जाता है, तब उसे स्वास्थ्यलाभ हो जाता है। डा युंग के कथानुसार रोग मनुष्य को आराम की आवश्यकता दर्शाने के लिये आता है। वह उसे अपनी इच्छाओं को वश में लाने का सबक सिखाता है। एडवर्ड कारपेंटर के अनुसार हमारी वर्तमान सभ्यता ही मानसिक रोग है। यह हमें प्राकृतिक जीवन से दूर हटाती है। यह हमारी इच्छाओं को इतना बढ़ा देती है कि उनकी पूर्ति में हम सदा अपने आपको डुबो देते हैं। जिस विधि से इन व्यर्थ की इच्छाओं में कमी हो, वही मानसिक स्वास्थ्य की सर्वोत्तम ओषधि है। अतएव प्राकृतिक जीवन मानस-रोग-निवारण का उत्तम उपाय है।
मनोविकार विज्ञान में न केवल प्राकृतिक जीवन का स्थान है, वरन् धर्म का भी है। अनेक मानसिक विकार तृष्णा की वृद्धि से और संयम की कमी से उत्पन्न होते हैं। धर्म तृष्णा की वृद्धि को रोकता और संयम को बढ़ाता है। अतएव वह अनेक प्रकार के मनोविकारों को पैदा ही नहीं होने देता। दूसरे, धर्म का संबंध साहित्य और कला से अनिवार्य रूप से रहता है। इनके द्वारा मनुष्य की निम्न कोटि की इच्छाओं का उदासीकरण होता रहता है। इसके कारण मनुष्य की इन इच्छाओं और नैतिक बुद्धि में संघर्ष नहीं होता और मानसिक ग्रंथियों के बनने का अवसर ही नहीं आता।
मनोविकार विज्ञान इस प्रकार हमारी दृष्टि मानव समाज में प्रचलित जीवन के उन पुराने तरीकों और मूल्यों की ओर फेर देता है, जिनके ह्रास के कारण मनुष्य को अनेक प्रकार के मानसिक क्लेश भोगने पड़ते हैं। इस ज्ञान के सहारे सामाजिक मूल्यों और संस्कृति का जो निर्माण होगा, वह मनुष्य के जीवन को स्थायी स्वास्थ्य प्रदान करेगा। इसी आशा से इस विज्ञान का विस्तार न केवल मानसिक चिकित्सकों द्वारा हो रहा है, वरन् सभी समाज-कल्याण-चिंतकों द्वारा हो रहा है।
भारत में मनोरोगविज्ञान की स्थिति
भारत में मनोरोग विज्ञान अभी तक अल्प विकसित अवस्था में है। मनोरोगों के बारे में आम व्यक्ति की जानकारी गलत धारणाओं से भरी है। आज के वैज्ञानिक युग में भी भूत-प्रेत, ऊपरी साया, देवी-देवता, मौसम, नक्षत्र, भाग्य, बुरे कर्मों का फल आदि को इन रोगों का कारण माना जाता है। इसलिए ओझा, पुजारी, मौलवी, साधु, नकली वैद्य, नीम-हकीम, अप्रशिक्षित यौन-विशेषज्ञ इत्यादि अवैज्ञानिक रूप से मनोरोग चिकित्सकों का कार्य कर रहे हैं।
सामान्य चिकित्सक एवं चिकित्सा-विशेषज्ञ मनोरोगों को सही समय पर पहचानने तथा रोगियों को मनोरोग चिकित्सक के पास भेजने में प्राय: असमर्थ हैं। इसके कई कारण हैं; जिनके प्रमुख हैं : धन लोलुपता, अपर्याप्त जानकारी, अपर्याप्त प्रशिक्षण, मनोचिकित्सकों की कमी, गरीबी, रोगी या उसके रिश्तेदारों द्वारा मनोरोग को स्वीकार न करना, आदि। समाचार-पत्र तथा अन्य प्रचार-प्रसार माध्यम भी लोगों को मनोरोगों के बारे में सही जानकारी देने में असफल रहे हैं। परिणामस्वरूप लोगों में इन रोगों के बारे में डर व अज्ञानता की गलत धारणाएं दूर नहीं हुई हैं।
भारत की 100 करोड़ से अधिक आबादी पर मात्र लगभग 4000 मनोरोग चिकित्सक हैं। यह संख्या बहुत कम है। भारत में 42 मनोरोग के अस्पताल हैं जिनमें लगभग बीस हजार बिस्तर हैं। हाल ही में सभी सरकारी अस्पतालों में मनोरोग चिकित्सा प्रदान करने की योजना बनायी गयी है ताकि मनोरोगियों को सामान्य अस्पतालों में ही चिकित्सा प्रदान की जा सके। परन्तु मनोरोग चिकित्सकों का काफी समय और मनोरोग चिकित्सालयों को मिलने वाली काफी अधिक सहायता नशेड़ियों के उपचार में खर्च हो जाती है।
इन्हें भी देखें
- मानसिक रोग
- मनोचिकित्सा (Psychotherapy)
- मनोविकारविज्ञानी (psychiatrist)
- मनोविकृतिविज्ञान (psychopathology)
बाहरी कड़ियाँ
- मानसिक बीमारियां लाइलाज नहीं होती हैं (भारतीय पक्ष)
- World Psychiatric Association
- Journal of Clinical Psychiatry
- American Psychiatric Association
- The Royal College of Psychiatrists
- Royal Australian and New Zealand College of Psychiatrists
- Asia-Pacific Psychiatry, official journal of the Pacific Rim College of Psychiatrists.
- Early Intervention in Psychiatry, official journal of the International Early Psychosis Association.
- Psychiatry and Clinical Neurosciences, official journal of the The Japanese Society of Psychiatry and Neurology.
- Private Psychiatry