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बिच्छू

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वृश्चिक
सामयिक शृंखला: Silurian–Recent
Asian forest scorpion in Khao Yai National Park.JPG
थाईलैंड के खाओ याई राष्ट्रीय उद्यान में एशियाई वन बिच्छू।
वैज्ञानिक वर्गीकरण
जगत: जंतु
संघ: आर्थोपोडा
उपसंघ: चेलीसेराटा
वर्ग: अष्टपाद
उपवर्ग: ड्रोमोपोडा
गण: Scorpiones
कार्ल लुडविग कोच, 1837
परमवंश

Buthoidea
Chaeriloidea
Chactoidea
Iuroidea
Pseudochactoidea
Scorpionoidea
देखें वर्गीकरण  वंशों के लिए।

वृश्चिक या बिच्छू सन्धिपाद (Arthropoda) संघ का साँस लेनेवाला अष्टपाद (Arachnid) है। इसकी अनेक जातियाँ हैं, जिनमें आपसी अंतर बहुत मामूली हैं। यहाँ बूथस (Buthus) वंश का विवरण दिया जा रहा है, जो लगभग सभी जातियों पर घटता है।

यह साधारणतः उष्ण प्रदेशों में पत्थर आदि के नीचे छिपे पाये जाते हैं और रात्रि में बाहर निकलते हैं। बिच्छू की लगभग २००० जातियाँ होती हैं जो न्यूजीलैंड तथा अंटार्कटिक को छोड़कर विश्व के सभी भागों में पाई जाती हैं। इसका शरीर लंबा चपटा और दो भागों- शिरोवक्ष और उदर में बटा होता है। शिरोवक्ष में चार जोड़े पैर और अन्य उपांग जुड़े रहते हैं। सबसे नीचे के खंड से डंक जुड़ा रहता है जो विष-ग्रंथि से संबद्ध रहता है। शरीर काइटिन के बाह्यकंकाल से ढका रहता है। इसके सिर के ऊपर दो आँखें होती हैं। इसके दो से पाँच जोड़ी आँखे सिर के सामने के किनारों में पायी जाती हैं।
बिच्छू साधारणतः उन क्षेत्रों में रहना पसन्द करते हैं जहां का तापमान २० से ३७ सेंटीग्रेड के बीच रहता हैं। परन्तु ये जमा देने वाले शीत तथा मरूभूमि की गरमी को भी सहन कर सकते हैं।

अधिकांश बिच्छू इंसान के लिए हानिकारक नहीं हैं। वैसे, बिच्छू का डंक बेहद पीड़ादायक होता है और इसके लिए इलाज की जरूरत पड़ती है। शोधकर्ताओं के मुताबिक बिच्छू के जहर में पाए जाने वाले रसायन क्लोरोटोक्सिन को अगर ट्यूमर वाली जगह पर लगाया जाए तो इससे स्वस्थ और कैंसरग्रस्त कोशिकाओं की पहचान आसानी से की जा सकती है। वैज्ञानिकों का दावा है कि क्लोरोटोक्सिन कैंसरग्रस्त कोशिकाओं पर सकारात्मक असर डालता है। यह कई तरह के कैंसर के इलाज में कारगर साबित हो सकता है। उनका मानना है कि बिच्छू का जहर कैंसर का ऑपरेशन करने वाले सर्जनों के लिए मददगार साबित हो सकता है। उन्हें कैंसरग्रस्त और स्वस्थ कोशिकाओं की पहचान करने में आसानी होगी।

बाह्य लक्षण

बिच्छू का शरीर लंबा, संकरा और परिवर्ती रंगों का होता है। शरीर दो भागों का बना होता है, एक छोटा अग्र भाग शिरोवक्ष या अग्रकाय (cephalothorax, prosoma) और दूसरा लंबा पश्चभाग, उदर (abdomen, opisthosoma) है। शिरोवक्ष एक पृष्ठवर्म (carapace) से पृष्ठत: आच्छादित रहता है, जिसके लगभग मध्य में एक जोड़ा बड़ी आँखें और उसके अग्र पार्श्विक क्षेत्र में अनेक जोड़ा छोटी आँखें होती हैं। उदर का अगला चौड़ा भाग मध्यकाय (Mesosoma) सात खंडों का बना होता है। प्रत्येक खंड ऊपर पृष्ठक (tergum) से और नीचे उरोस्थि (sternum) से आवृत होता है। ये दोनों पार्श्वत: एक दूसरे से कोमल त्वचा द्वारा जुड़े होते हैं।

पश्चकाय (metasoma) उदर का पश्च, सँकरा भाग है जिसमें पाँच खंड होते हैं। जीवित प्राणियों में पश्चकाय का अंतिम भाग, जो पुच्छ है, स्वभावत: पीठ पर मुड़ा होता है। इसके अंतिम खंड से अंतस्थ उपांग (appendage) संधिबद्ध (articulated) होता है और पुच्छीय मेरुदंड (caudal spine) आधार पर फूला और शीर्ष पर, जहाँ विषग्रंथियों की वाहिनियाँ खुलती हैं, नुकीला होता है। अंतिम खंड के अधर पृष्ठ (ventral surface) पर डंक के ठीक सामने गुदा द्वार स्थित होता है। मुख एक छोटा सा छिद्र है, जो अग्रकाय के अगले सिरे पर अधरत: स्थिर होता है। मुख पर लैब्रम (labrum) छाया रहता है।

अग्रकाय के उपांग

ये छह जोड़ा हैं। कीलिसैराएँ (chelicerae) अग्रतम उपाँग हैं और ये शिकार के अध्यावरण (integument) को फाड़ने के काम में आते हैं। प्रत्येक कीलिसैरा तीन जोड़ोंवाला होता है। और कीला (chela) पर समाप्त होता है। पश्चस्पर्शक (Pedipalps) द्वितीय जोड़ा होने के कारण आक्रमण करने तथा पकड़ने के समर्थ साधन सिद्ध होते हैं।

चलने के काम आनेवाले चारों पैर रचना की दृष्टि से एक से हैं और शिरोवक्ष की बगल में देह से जुड़े हैं। पहले दो जोड़े के आधारिक (basal) खंड इस प्रकार रूपांतरित हुए हैं कि वे लगभग जबड़े की तरह काम कर सकें।

मध्यकाय के उपांग

मध्यकाय के प्रथम खंड की उरोस्थि (sternum) पर जननांगी प्रच्छद ढक्कन (genital operculum) पाया जाता है, जो दरार (cleft) से विभाजित, कोमल, मध्यस्थ, गोल पालि (lobe) हैं। इसके आधार पर जननांगी वाहिनी का मुँह होता हैं। दूसरे खंड की उरोस्थि से दो कंघीनुमा पेक्टिन (pectins) जुड़े होते हैं। क्रिया की दृष्टि से ये स्पर्शक (tactile) हैं।

मध्यकाय के तीसरे, चौथे, पाँचवें और छठे खंडों की उरोस्थियाँ बहुत चौड़ी होती हैं और प्रत्येक पर दो तिर्यक् रेखाछिद्र (oblique slits) रहते हैं, जिन्हें बदुदृक् (stigmata) कहते हैं। ये फुफ्फुसी कोश (Pulmonary sacs) में पाए जाते हैं। शेष मध्यकायिक तथा मेटासोमा के खंड उपांगविहीन होते हैं।

अंत:कंकाल

शिरोवक्ष के अग्र में अनेक प्रक्रियाओं का एक काइटिनी (chitinous) प्लेट हैं, जिससे विभिन्न दिशाओं से आनेवाली पेशियाँ जुड़ी होती हैं। इस काइटिनी प्लेट को एंडोस्टर्नाइट (Endosternite) कहते हैं।

पाचकतंत्र

आहारनाल (alimentary canal) एक सीधी नली हे जो मुँह से गुदा तक जाती है। इसे चार प्रधान भागों में विभक्त किया जा सकता है : (1) मुखपूर्वी कोटर (preoral cavity), (2) अग्रांत्र (foregut) या मुखपथ (stomadaeum), (3) मध्यांत्र (midgut) या मेसेंटरॉन (mesenteron) और (4) पश्चांत्र या गुदपथ (proctodaeum) या पाचन की प्रक्रिया में उदर ग्रंथियाँ और हेपैटोपैंक्रिअस (hepato-pancreas) सहचरित अग (organs) होते हैं।

परिसंचरण तंत्र

बिच्छू का परिसंचरण तंत्र सुविकसित होता हैं। इसमें नलिकाकार ऑस्टिएट (ostiate), हृदय, धमनियाँ, शिराएँ और कोटर (sinuses) हैं। रक्त रंगहीन तरल के रूप में नीली छटा से युक्त होता है, जो उसमें घुले हीमोसायनिन रंगद्रव्य के कारण होती है। इसमें असंख्य केंद्रिकित (nucleated) कणिकाएँ होती हैं।

श्वसन अंग

तीसरे से छठे मध्यकायिक खंड के अधर पार्श्वक बगल में चार जोड़ा पुस्त-फुफ्फुस (booklungs) स्थित होते हैं। प्रत्येक पुस्त-फुफ्फुस (1) फुफ्फुस कोष्ठ जिसमें खोखली पटलिकाएँ होती हैं तथा जिनमें रक्त प्रवाहित होता है, (2) वायुपरिकोष्ठ (atsium) और (3) बाहर की ओर खुलनेवाले दृग्बिंदु (stigma) का बना होता है।

बिच्छू की श्वसन क्रियाविधि में शरीर की पृष्ठपार्श्वीय (dorsolateral) पेशियों की सक्रियता के कारण फुफ्फुस का तालबद्ध संकुचन और शिथिलन (contraction & relaxation) होता है। बिच्छू में पुस्तफुफ्फुस के अतिरिक्त अन्य श्वसन अंगों का अभाव है। त्वक्श्वसन (cutaneous respiration) नहीं होता।

उत्सर्जन तंत्र

बिच्छू में तीन भिन्न अंगों से उत्सर्जन की क्रिया होती है : (1) एक जोड़ा मैलपीगी नलिकाएँ (Malpighian tubules), जिनका रंग भूरा होता है, (2) एक जोड़ा श्रोणि ग्रंथियाँ (coxal glands) तथा (3) एक यकृत अथवा हेपैटोपैंक्रिअस (Hepato-pancreas)।

जननतंत्र

नर मादा के लिंग अलग अलग होते हैं। नर मादा की अपेक्षा छोटा होता है और उसका उदर अपेक्षाकृत सँकरा होता है। नर के पश्चस्पर्शक प्राय: अपेक्षाकृत लंबे और अंगुलियाँ छोटी और पुष्ट होती हैं। नर की दुम प्राय: मादा की अपेक्षा लंबी होती है। जननिक प्रच्छद (genital operculum) सदैव दो आवरकों (flaps) का बना होता है।

नर के वृषण (testes) में आड़ी शाखाओं से जुड़ी हुई दो जोड़ा अनुदैर्घ्य नलियाँ होती हैं। प्रत्येक वृषण, एक मध्यस्थ शुक्रवाहक (median vas deferens) से जुड़ा होता है, जिसका अंतस्थ भाग सहायक ग्रंथि (accessory gland) युक्त और द्विशिश्न (double penis) के रूप में रूपांतरित होता है। वृषण का अंतस्थ सिरा प्रच्छद ढक्कन (operculum) के ठीक पीछे होता है।

मादा के तीन अनुदैर्घ्य नलियों का एक अयुग्मित अंडाशय (ovary) होता है, जिसमें आड़ी योजक शाखाएँ होती हैं। अंडवाहिनियाँ (oviduct) प्रच्छद ढक्कन पर खुलती हैं।

तंत्रिकातंत्र

केंद्रीय तंत्रिकातंत्र में मसिष्क, अधर-तंत्रिका-रज्जु (ventral nerve cord) और तंत्रिकाएँ होती हैं। आँख और पेक्टिन (pectins) विशिष्ट संवेदी अंग हैं।

विषग्रंथि

बिच्छू में एक जोड़ा विषग्रंथियाँ होती हैं, जो पुच्छखंड (telson) की तुंबिका (ampulla) में अगल बगल रहती हैं। इनकी पेशियाँ मजबूत होती हैं और विषग्रंथियों की वाहिकाएँ दंश के सिरे पर खुलती हैं।

विष स्वादहीन, गंधहीन और अल्पश्यान (viscous) तरल है। यह पानी, नमकीन विलयन और ग्लिसरीन में विलेय है। पर ऐल्कोहॉल और ईथर में नहीं घुलता। बिच्छू बिना छेड़े डंक नहीं मारते। मनुष्यों पर विष का घातक प्रभाव नहीं पड़ता और स्वयं बिच्छू पर भी कोई कुप्रभाव नहीं पड़ता।

स्वभाव

पथरीले स्थान और बलुई मिट्टी बिच्छू के प्राकृतिक आवास हैं। ये प्राय: विदरिकाओं (crevices) और चपटे पत्थरों के नीचे पाए जाते हैं। ये स्वभावत: अकेले रहते हैं, पर वर्षाऋतु के आरंभ में पत्थरों के नीचे बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। ये मक्खियों, तिलचट्टों और अन्य कीटों पर निर्वाह करनेवाले परभक्षी हैं और अपने शिकार के शरीर से सिर्फ तरल पदार्थ चूसते हैं। चूसने की क्रिया में दो घंटे से अधिक समय लग जाता है। इनमें स्वजातिभक्षण भी होता है। चलते समय ये अपने पश्चस्पर्शकों को, जो स्पर्शक और परिग्राही (Prehensile) अंग का कार्य करते हैं, क्षैतिज रखते हैं। शरीर, पैरों पर उठा होता है, दुम पीठ पर आगे की ओर मुड़ी होती है और डंक पीठ पर नीचे की ओर झुका रहता है। बिच्छुओं का स्पर्शज्ञान विकसित और दृष्टि अत्यल्प होती है।

ये सजीव प्रजक (viviparous) हैं। नवजात शिशु माता की पीठ पर रहते हैं। प्रजनन वर्षाऋतु के गरम दिनों में होता है। संगम के समय नर और मादा दुम उलझाकर कामदनृत्य (nuptial dance) करते हैं। नर अपने पश्चस्पर्शक से मादा का पश्चस्पर्शक पकड़कर, आगे पीछे की ओर चलता है और मादा प्राय: स्वेच्छा से उसका साथ देती है। वे घंटों गोलाई में घूमते रहते हैं। अंत में नर मादा को पकड़े हुए ही, एक उपयुक्त पत्थर के नीचे गड्ढा खोदता है और फिर दोनों उसमें चले जाते हैं। संगम के उपरांत मादा नर को निगल जाती है।

वितरण

बूथस (Buthus) वंश ध्रुवीय और आर्कटिक क्षेत्र, इथियोपियाई क्षेत्र, जांबेरी, चीन, भारत तथा भूमध्यसागरीय देशों में सर्वत्र पाया जाता है। यह भारत में मध्यप्रदेश, दक्षिण भारत एवं संपूर्ण पश्चिम भारत में पाया जाता है। बर्मा, लंका और पश्चिमी घाट के दक्षिण में मलाबार तट में नहीं पाया जाता, यद्यपि कोंकण में पाया जाता है।


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