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नेत्रविज्ञान
नेत्रविज्ञान (Ophthalmology), चिकित्साविज्ञान का वह अंग है जो आँख की रचना, कार्यप्रणाली, उसकी बीमारियों तथा चिकित्सा से संबधित है। नेत्रचिकित्सा, चिकित्सा व्यवसाय का एक प्रधान महत्वपूर्ण अंग समझा जाना चाहिए। नेत्र जीवन के लिए अनिवार्य तो नहीं, किंतु इसके बिना मानव शरीर के अस्तित्व का मूल्य कुछ नहीं रहता। ऐसे अंग की जीवन पर्यंत रक्षा का प्रबंध रखना रोगी, उसके परिचायक एवं चिकित्सक का पुनीत कर्तव्य होना चाहिए।
यह बहुत ही पुराना विज्ञान है, जिसका वर्णन अथर्ववेद में भी मिलता है। सुश्रुतसंहिता, संस्कृत भाषा की अनुपम कृति है, जिसमें आँख की बीमारियों तथा उनी चिकित्सा का सबसे प्रारंभिक विवरण मिलता है। सुश्रुत, आयुर्वेद शास्त्र के प्रथम शल्यचिकित्सक थे, जिन्होंने विवरणपूर्वक और पूर्णत: आँख की उत्पत्ति, रचना, कार्यप्रणाली, बीमारियों तथा उनकी चिकित्सा के विषय में लिखा है, यह नेत्रविज्ञान के लेख "सुश्रुतसंहिता" के "उत्तरातांत्रा" के 1-19 तक अध्याय में सम्मिलित है। इसमें पलकें कजंक्टाइवा, स्वलेरा, कॉर्निया लेंस और कालापानी इत्यादि का विवरण मिलता है। मोतियाबिंद का सबसे पहले आपरेशन करने का श्रेय शल्य चिकित्सक सुश्रुत को प्राप्त है।
नेत्र
नेत्र शरीर की पाँच विशेष इंद्रियों में से एक इंद्रिय है, जिसके दो भाग होते हैं :
1. सहायक अंग (Accessory Organs), जो आँख के गोले को सहायता देते और सुरक्षित रखते हैं।
2. देखने का अंग (Visual Apparatus), जिसमें वे भाग होते हैं जिनमें देखने की शक्ति होती है।
आँख का विशेष कार्य देखने का है। इसके लिए यह आवश्यक है कि आँख की गोलाकार आकृति स्थायी रूप से बनी रहे तथा नेत्र के वे सब आंतरिक अंग जिनसे किरणें गुजरती हैं, पारदर्शक बने रहें। नेत्रोद तथा विट्रियस गोलाकार आकृति को स्थायी रूप में रखते हैं। कॉर्निया, नेत्रोद, लेंस तथा विट्रियस नेत्र के वे आंतरिक अंग हैं जिनसे किरणें गुजरती हैं और दृष्टिपटल पर किसी वस्तु की छाया बनाने में सहायता करती हैं। आँख के इस कार्य को समझने के लिए, इसकी तुलना कैमरे से की जा सकती है। जिस प्रकार मैमरा चारों ओर से काला होता है तथा चित्र खींचते समय काले कपड़े से ढँक लिया जाता है उसी प्रकार आँख के दृष्टि पटल के चारों ओर एक काला पर्दा होता है, जिसे पिगमेंट एपीथिलियम (pigment epithelium) कहते हैं। कैमरे के प्लेट पर अच्छे फोटो बनने के लिए यह आवश्यक है कि कैमरे को फोकस किया जाए, परंतु आँख में यह कार्य स्वयं ही लेंस द्वारा होता रहता है, जो अपनी गोलाई को घटा बढ़ाकर किरणों को दृष्टिपटल पर फोकस करने में सहायता करता है। यदि हम चाहें तो कैमरे के छेद को (aperture) छोटा बड़ा करके रोशनी की मात्रा को कम अथवा अधिक कर सकते हैं। आँख में यह काम पुतली द्वारा किया जाता है, जो अपने आप सिकुड़कर छोटी अथवा बड़ी होती रहती है।
दृष्टिपटल पर जो छाया बनती है वह दृष्टि-तंत्रिका (opticnerve) से होती हुई मस्तिष्क में दृष्टिकेंद्र पर जाकर बनती है। यदि किसी प्रकार किरणें दृष्टिपटल पर इकट्ठी न होकर उसके सामने अथवा उसके पीछे इकट्ठी हों तो इसको वर्तनदोष (refractive error) कहते हैं, जो चश्मा लगाने से ठीक हो जाती है। यदि किरणें दृष्टिपटल के पीछे इकट्ठी हों, तो उत्तल लेंस लगाना चाहिए, जिससे किरणें और आगे ही दृष्टिपटल पर इकट्ठी हो जाएँ। इसी प्रकार यदि ये दृष्टिपटल के सामने इकट्ठी हों तो अवतल लेंस लगाना चाहिए, किरणें और दूरी पर इक्ट्ठी होकर छाया दृष्टिपटल पर बना सकें।
बाहरी कड़ियाँ
- American Academy of Ophthalmology
- Jharkhand Ophthalmological Society
- Philippine Academy of Ophthalmology
- Association for Research in Vision and Ophthalmology
- American Society of Cataract & Refractive Surgery
- European Society of Cataract & Refractive Surgery
- European Vitreo-Retinal Society
- Royal College of Ophthalmologists
- American Board of Eye Surgeons
- American Board of Ophthalmology
- International Council of Ophthalmology
- Indian Journal of Ophthalmology
- All India Ophthalmological Society
- Delhi Ophthalmological Society
- Ophthalmological Society of Bangladesh
- The David G. Cogan Ophthalmic Pathology Collection
- Royal College of Surgeons in Edinburgh
- Canadian Ophthalmological Society
- Daily Ophthalmology News
- Difference Between an Optometrist and Ophthalmologist