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ग़ज़वा ए बनू क़ुरैज़ा

ग़ज़वा ए बनू क़ुरैज़ा

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बनू क़ुरैज़ा

ग़ज़वा-ए-बनू क़ुरैज़ा (अंग्रेज़ी:Invasion of Banu Qurayza)या बनू क़ुरैज़ा की लड़ाई, खंदक़ की लड़ाई से पहले मुसलमानों और यहूदियों के बीच एक जंगी अभियान था। फरवरी और मार्च 627 (5 हिजरी) के दौरान ज़ु अल-क़ादा के महीने में हुआ था। पैगंबर मुहम्मद ने 25 दिनों तक बनू क़ुरैज़ा को घेर रखा था जब तक कि उन्होंने आत्मसमर्पण नहीं कर दिया।

बनू क़ुरैज़ा

इस्लामिक दृष्टिकोण

इस्लाम के विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी क़ुरआन की सूरा अल-हश्र की विवेचना मेँ लिखते हैं कि जब सन् 70 ईस्वी में रूमियों ने फ़िलिस्तीन में यहूदियों का सार्वजनिक नरसंहार किया और फिर सन् 132 ई॰ में उन्हें इस भू-भाग से बिलकुल निकाल बाहर किया। उस समय बहुत-से यहूदी क़बीलों ने भागकर हिजाज़ में शरण ली थी, क्योंकि ये क्षेत्र फ़िलिस्तीन के दक्षिण में बिलकुल मिला हुआ अवस्थित था। यहाँ आकर उन्होंने जहाँ-जहाँ जल-स्रोत और हरे-भरे स्थान देखे, कहाँ ठहर गए और फिर बस गए। ऐला, मक़ना,तबूक,तैम, वादिउल कुराअ, फ़दक और खैबर पर उनका आधिपत्य उसी समय में स्थापित हुआ और बनी कुरैश, बनू नज़ीर, बनी बहदल और बनी कैनुक़ा ने भी उसी ज़माने में आकर यसरिब (मदीना का पुराना नाम) पर क़ब्जा जमाया। यसरिब में आबाद होने वाले क़बीलों में से बनी नज़ीर और बनी कुरैज़ा अधिक उभरे हुए और प्रभुत्वशाली थे, क्योंकि उनका सम्बन्ध काहिनों के वर्ग से था। उन्हें यहुदियों में उच्च वंश का माना जाता था और उन्हें अपने सम्प्रदाय में धार्मिक नेतृत्व प्राप्त था। ये लोग जब मदीना में आकर आबाद हुए उस समय कुछ दूसरे अरब क़बीले यहाँ रहते थे, जिनको इनहोंने अपना बना लिया और व्यवहारतः हरे-भरे स्थान के मालिक बन बैठे। इसके लगभग तीन शताब्दी के पश्चात् औस और खज़रज यसरिब में जाकर आबाद हुए (और उन्होंने कुछ समय पश्चात् यहूदियों का ज़ोर तोड़कर यसरिब पर पूरा आधिपत्य प्राप्त कर लिया।) अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के पदार्पण से पहले हिजरत के प्रारम्भ तक, हिजाज़ में सामान्यतः और यसरिब में विशेष रूप से यहूदियों की पोज़ीशन की स्पष्ट रूप-रेखा यह थी:

भाषा , वस्त्र , सभ्यता , नागरिकता , हर दृष्टि से उन्होंने पूर्ण रूप से अरब-संस्कृति का रंग ग्रहण कर लिया था। उनके और अरबों के मध्य विवाह तक के सम्बन्ध स्थापित हो चुके थे, किन्तु इन सारी बातों के बावजूद वे अरबों में समाहित बिलकुल न हुए थे और उनहोंने सतर्कता के साथ अपने यहूदी पन को जीवित रखा था। उनमें अत्यन्त इसराईली पन और वंशगत गर्व पाया जाता था। अरबवालों को वे उम्मी (Gentiles) कहते थे , जिसका अर्थ केवल अनपढ़ नहीं, बल्कि असभ्य और उजड्ड होता था। उनकी धारणा यह थी कि इन उम्मियों को वे मानवीय अधिकार प्राप्त नहीं हैं जो इसराईलियों के लिए हैं और उनका धन प्रत्येक वैध और अवैध रीति से इसराईलियों के लिए वैध और विशुद्ध है। आर्थिक दृष्टि से उनकी स्थिति अरब क़बीलों की अपेक्षा अधिक सुदृढ थी। वे बहुत-से ऐसे हुनर और कारीगरी जानते थे जो अरबों में प्रचलित न थी। और बाहर की दुनिया से उनके कारोबारी सम्बन्ध भी थे। वे अपने व्यापार में खूब लाभ बटोरते थे। लेकिन उनका सबसे बड़ा कारोबार ब्याज लेने का था जिसके जाल में उन्होंने अपने आसपास की अरब आबादियों को फांस रखा था, किन्तु इसका स्वाभाविक परिणाम यह भी था कि अरबों में साधारणतया उनके विरुद्ध एक गहरी घृणा पाई जाती थी। उनके व्यापारिक और आर्थिक हितों की अपेक्षा यह थी कि अरबों में किसी के मित्र बनकर किसी से बिगाड़ पैदा न करें और न उनकी पारस्परिक लड़ाई में भाग लें। इसके अतिरिक्त तदधिक अपनी सुरक्षा के लिए उनके हर क़बीले ने किसी - न - किसी शक्तिशाली अरब क़बीले से प्रतिज्ञाबद्ध मैत्री के सम्बन्ध भी स्थापित (कर रखे थे) यसरिब में बनी कुरेज़ा और बनी नज़ीर, औस के प्रतिज्ञाबद्ध मित्र थे और बनी कैनुक़ा ख़ज़ारज के। यह स्थिती थी जब मदीने में इस्लाम पहुँचा और अन्ततः अल्लाह के रसूल (सल्ल.)के पदार्पण के पश्चात् वहाँ एक इस्लामी राज्य अस्तित्व में आया। आपने इस राज्य को स्थापित करते ही जो सर्वप्रथम काम किए उनमें से एक यह था कि औस और ख़ज़रज और मुहाजिरों को मिलाकर एक बिरादरी बनाई और दूसरा यह था कि मुस्लिम समाज और यहूदियों के मध्य स्पष्ट शर्तों पर एक अनुबन्ध निर्णीत किया, जिसमें इस बात की ज़मानत दी गई थी कि कोई किसी के अधिकारों पर हाथ नहीं डालेगा और बाह्य शत्रुओं के मुक़ाबले में यह सब संयुक्त प्रतिरक्षा करेंगे।

इस अनुबन्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण वाक्य ये हैं:

“यह कि यहूदी अपना ख़र्च उठाएँगे और मुसलमान अपना ख़र्च; और यह कि इस अनुबन्ध में सम्मिलित लोग आक्रमणकारी के मुक़ाबले में एक-दूसरे की सहायता करने के पाबन्द होंगे। और यह कि वे शुद्ध - हृदयता के साथ एक - दूसरे के शुभ - चिन्तक होंगे। और उनके मध्य पारस्परिक सम्बन्ध यह होगा कि वे एक - दूसरे के साथ नेकी और न्याय करेंगे, गुनाह और अत्याचार नहीं करेंगे। और यह कि कोई उसके साथ ज़्यादती न करेगा जिसके साथ उसकी प्रतिज्ञाबद्ध मैत्री है, और यह कि उत्पीड़ित की सहायता की जाएगी, और यह कि जब तक युद्ध रहे, यहूदी मुसलमानों के साथ मिलकर उसका ख़र्च उठाएँगे। और यह कि इस अनुबन्ध में सम्मिलित होनेवालों के लिए यसरिब में किसी प्रकार का उपद्रव और बिगाड़ का कार्य वर्जित है और यह कि अनुबन्ध में सम्मिलित होनेवालों के मध्य यदि कोई विवाद या मतभेद पैदा हो, जिससे दंगा और बिगाड़ की आशंका हो तो उसका निर्णय अल्लाह के क़ानून के अनुसार अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल.) करेंगे .... और यह कि कुरैश और उसके समर्थकों को शरण नहीं दी जाएगी और यह कि यसरिब पर जो आक्रमण करे, उसके मुक़ाबले में अनुबन्ध में सम्मिलित लोग एक - दूसरे की सहायता करेंगे ...। हर पक्ष अपनी तरफ़ के क्षेत्र की सुरक्षा का उत्तरदायी हो।" (इब्ने हिशाम, भाग दो, पृष्ठ 147-150)

यह एक निश्चित और स्पष्ट अनुबन्ध था जिसकी शर्ते स्वयं यहूदियों ने स्वीकार की थी, किन्तु बहुत जल्द उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल.) , इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध शत्रुतापूर्ण नीति का प्रदर्शन शुरू कर दिया और उनकी शत्रुता एवं उनका विद्वेष दिन - प्रतिदिन उग्र रूप धारण करता चला गया। उन्होंने नबी (सल्ल.) के विरोध को अपना-जातीय लक्ष बना लिया। आपको पराजित करने के लिए कोई चाल, कोई उपाय और कोई हथकंडा इस्तेमाल करने में उनको तनिक भी संकोच न था। अनुबन्ध के विरुद्ध खुली - खुली शत्रुतापूर्ण नीति तो बद्र के युद्ध से पहले ही वे अपना चुके थे। किन्तु जब बद्र में अल्लाह के रसूल (सल्ल.) और मुसलमानों को कुरैश पर स्पष्टतः विजय प्राप्त हुई तो वे तिलमिला उठे और उनके द्वेष की आग और अधिक भड़क उठी।

लड़ाई

इस्लामिक प्राथमिक स्रोत

इस्लामी इतिहास के अनुसार बनी कुरैज़ा के लोगों ने मुआहदा तोड़ कर अलानिया जंगे खंदक़ की लड़ाई में विरोधियों के साथ मदीने पर हमला किया है। इसलिये पैग़म्बर मुहम्मद ने एलान कर दिया कि लोग • अभी हथयार न उतारें और बनी कुरैज़ा की तरफ रवाना हो जाएं, वो खुद भी पहुंचे।

बनी कुरैज़ा भी जंग के लिये बिल्कुल तय्यार थे चुनान्चे जब हज़रते अली उन के किलों के पास पहुंचे तो अहद शिकन यहूदियों ने गालियां दीं , पैग़म्बर मुहम्मद ने उन के किलों का मुहासरा कर लिया और तक़रीबन एक महीने तक यह मुहासरा घेराबंदी जारी रहा यहूदियों ने तंग आकर येह दरख्वास्त पेश की, कि "हज़रते सा 'द बिन मुआज हमारे बारे में जो फ़ैसला कर दें वोह हमें मन्जूर है।"

हज़रते सा 'द बिन मुआज जंगे खंदक़ की लड़ाई में एक तीर खा कर शदीद तौर पर ज़ख़्मी थे मगर इसी हालत में वोह एक गधे पर सवार हो कर बनी कुरैज़ा गए और उन्हों ने यहूदियों के बारे में येह फ़ैसला फ़रमाया कि:

"लड़ने वाली फ़ौजों को क़त्ल कर दिया जाए, औरतें और बच्चे कैदी बना लिये जाएं और यहूदियों का माल व अस्बाब माले गनीमत बना कर मुजाहिदों में तक्सीम कर दिया जाए।"

पैग़म्बर मुहम्मद ने उन की ज़बान से येह फैसला सुन कर फ़रमाया कि यकीनन बिला शुबा तुम ने इन यहूदियों के बारे में अल्लाह के फैसले (या राजा के फैसले) के समान निर्णय दिया है।"[मुस्लिम, जिलद 2,पृष्ट 95]

इस फ़ैसले के मुताबिक़ बनी कुरैजा की लड़ाका फौजें कत्ल की गई और औरतों बच्चों को कैदी बना लिया गया और उन के माल व सामान को मुजाहिदीने इस्लाम ने माले गनीमत बना लिया।

सुन्नी हदीस संग्रह में अबू दाऊद :

अतिय्याह अल-कुराज़ी से वर्णित: मैं बानू कुरैज़ा के बंदियों में से था। उन्होंने (साथियों ने) हमारी जांच की, और जो बाल (पौज) उगाना शुरू कर चुके थे, वे मारे गए, और जो नहीं थे वे मारे नहीं गए। मैं उन लोगों में से था जिनके बाल नहीं बढ़े थे।[सुनन अबू दाऊद , 38:4390]

इब्न कथिर के अनुसार , कुरआन की आयतें 33:26-27 और 33:9-10 बनू कुरैजा के खिलाफ हमले के बारे में हैं।

सराया और ग़ज़वात

अरबी शब्द ग़ज़वा इस्लाम के पैग़ंबर के उन अभियानों को कहते हैं जिन मुहिम या लड़ाईयों में उन्होंने शरीक होकर नेतृत्व किया,इसका बहुवचन है गज़वात, जिन मुहिम में किसी सहाबा को ज़िम्मेदार बनाकर भेजा और स्वयं नेतृत्व करते रहे उन अभियानों को सरियाह(सरिय्या) या सिरया कहते हैं, इसका बहुवचन सराया है।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ


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