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उच्चारण स्थान
स्वनविज्ञान के सन्दर्भ में, मुख गुहा के उन 'लगभग अचल' स्थानों को उच्चारण बिन्दु (articulation point या place of articulation) कहते हैं जिनको 'चल वस्तुएँ' छूकर जब ध्वनि मार्ग में बाधा डालती हैं तो उन व्यंजनों का उच्चारण होता है। उत्पन्न व्यंजन की विशिष्ट प्रकृति मुख्यतः तीन बातों पर निर्भर करती है- उच्चारण स्थान, उच्चारण विधि और स्वनन (फोनेशन)। मुख गुहा में 'अचल उच्चारक' मुख्यतः मुखगुहा की छत का कोई भाग होता है जबकि 'चल उच्चारक' मुख्यतः जिह्वा, नीचे वाला ओठ, तथा श्वासद्वार (ग्लोटिस) हैं।
व्यंजन वह ध्वनि है जिसके उच्चारण में हवा अबाध गति से न निकलकर मुख के किसी भाग (तालु, मूर्धा, दांत, ओष्ठ आदि) से या तो पूर्ण अवरुद्ध होकर आगे बढ़ती है या संकीर्ण मार्ग से घर्षण करते हुए या पार्श्व से निकले। इस प्रकार वायु मार्ग में पूर्ण या अपूर्ण अवरोध उपस्थित होता है।
अनुक्रम
हिन्दी व्यंजनों का वर्गीकरण
व्यंजनों का वर्गीकरण मुख्य रूप से स्थान और प्रयत्न के आधर पर किया जाता है। व्यंजनों के उत्पन्न होने के स्थान से संबंधित व्यंजन को आसानी से पहचाना जा सकता है। इस दृष्टि से हिन्दी व्यंजनों का वर्गीकरण इस प्रकार है-
उच्चारण स्थान (ध्वनि वर्ग) | उच्चरित ध्वनि |
---|---|
द्वयोष्ठ्य | प, फ, ब, भ, म |
दन्त्योष्ठ्य | फ़ |
दन्त्य | त, थ, द, ध |
वर्त्स्य | न, स, ज़, र, ल, ळ |
मूर्धन्य | ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, र, ष |
कठोर तालव्य | श, च, छ, ज, झ |
कोमल तालव्य | क, ख, ग, घ, ञ, ख़, ग़ |
पश्च-कोमल-तालव्य | क़ |
स्वरयंत्रामुखी | ह |
उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर वर्गीकरण
उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न व्यंजनों का वर्गीकरण इस प्रकार है-
स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है। क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ और क़- सभी ध्वनियां स्पर्श हैं। च, छ, ज, झ को पहले 'स्पर्श-संघर्षी' नाम दिया जाता था लेकिन अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यंजनों के वर्ग में रखा जाता है। इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खुलते हैं।
मौखिक व नासिक्य : व्यंजनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियां आती हैं। हिन्दी में ङ, ञ, ण, न, म व्यंजन नासिक्य हैं। इनके उच्चारण में श्वासवायु नाक से होकर निकलती है, जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है। इन्हें 'पंचमाक्षर' भी कहा जाता है। इनके स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग सुविधजनक माना जाता है। इन व्यंजनों को छोड़कर बाकी सभी व्यंजन मौखिक हैं।
पार्श्विक : इन व्यंजनों के उच्चारण में श्वास वायु जिह्वा के दोनों पार्श्वों (बगल) से निकलती है। 'ल' ऐसी ही ध्वनि है।
अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अनवरोधित रहती है। हिन्दी में य, व अर्धस्वर हैं।
लुंठित : इन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स्य भाग की ओर उठती है। हिन्दी में 'र' व्यंजन इसी तरह की ध्वनि है।
उत्क्षिप्त : जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा नोक कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे आती है, उन्हें उत्क्षिप्त कहते हैं। ड़ और ढ़ ऐसे ही व्यंजन हैं।
घोष और अघोष
व्यंजनों के वर्गीकरण में स्वर-तंत्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इस दृष्टि से व्यंजनों को दो वर्गों में विभक्त किया जाता है - घोष और अघोष। जिन व्यंजनों के उच्चारण में स्वरतंत्रियों में कंपन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं। दूसरे प्रकार की ध्वनियां अघोष कहलाती हैं। स्वरतंत्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात जिनके उच्चारण में कंपन नहीं होता उन्हें अघोष व्यंजन कहा जाता है।
घोष | अघोष |
---|---|
ग, घ, ङ | क, ख |
ज, झ, ञ | च, छ |
ड, ढ, ण, ड़, ढ़ | ट, ठ |
द, ध, न | त, थ |
ब, भ, म | प, फ |
य, र, ल, व, ह | श, ष, स |
प्राणता के आधर पर भी व्यंजनों का वर्गीकरण किया जाता है। प्राण का अर्थ है - श्वास वायु। जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यंजन कहा जाता है। पंच वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियां महाप्राण हैं। हिन्दी के ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, ड़, ढ़ - व्यंजन महाप्राण हैं। वर्गों के पहले, तीसरे और पांचवे वर्ण अल्पप्राण हैं। क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियां इसी वर्ग की हैं। इसे याद रखे।
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- मुख के उच्चारण स्थान
- वर्ण-माला (सुसंस्कृत)