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अंतःस्राविकी
अंत:स्राव विद्या (एंडोक्राइनॉलोजी) आयुर्विज्ञान की वह शाखा है जिसमें शरीर में अंतःस्राव या हारमोन उत्पन्न करने वाली ग्रंथियों का अध्ययन किया जाता है। उत्पन्न होने वाले हारमोन का अध्ययन भी इसी विद्या का एक अंश है। हारमोन विशिष्ट रासायनिक वस्तुएँ हैं जो शरीर की कई ग्रंथियों में उत्पन्न होती हैं। ये हारमोन अपनी ग्रंथियों से निकलकर रक्त में या अन्य शारीरिक द्रवों में, जैसे लसीका आदि में, मिल जाते हैं और अंगों में पहुँचकर उनसे विशिष्ट क्रियाएँ करवाते हैं। हारमोन शब्द ग्रीक भाषा से लिया गया है। सबसे पहले सन् 1902 में बेलिस और स्टार्लिंग ने इस शब्द का प्रयोग किया था। सभी अंतःस्रावी ग्रंथियाँ हारमोन उत्पन्न करती हैं।
इतिहास
सबसे पहले कुछ ग्रीक विद्वानों ने शरीर की कई ग्रंथियों का वर्णन किया था। तभी से इस विद्या के विकास का इतिहास प्रारंभ होता है। 16वीं और 17वीं शताब्दी में इटली के शरीरवेत्ता बेजेलियस और आक्सफोर्ड के टामस बेजेलियस, टामस व्हार्टन और लीवर नामक विद्वानों ने इस विद्या की अभिवृद्धि की। सूक्ष्मदर्शी द्वारा इन ग्रंथियों की रचना का ज्ञान प्राप्त होने से 19वीं शताब्दी में इस विद्या की असीम उन्नति हुई। अब भी अध्ययन जारी है और अन्च कई विधियों द्वारा अन्वेषण हो रह हैं।
यकृत और अंड ग्रंथियों का ज्ञान प्राचीनकाल से था। अरस्तू ने डिंबग्रंथि का वर्णन फ़ काप्रियाका फ़ नाम से किया था। अवटुका (थॉइरायड) का पहले पहल वर्णन गैलेन ने किया था। टॉमस व्हार्टन (1614-1645) ने इसका विस्तार किया और प्रथम बार इसे थॉइरायड नाम दिया। इसकी सूक्ष्म रचना का पूर्ण ज्ञान 19वीं शताब्दी में हो सका। पीयूषिका (पिट्यूटैरी) ग्रंथि का वर्णन पहले गैलेन और फिर बेजेलियस ने किया। तत्पश्चात् व्हार्टन और टामस विली (1621-1675) ने इसका पूरा अध्ययन किया। इसकी सूक्ष्म रचना हैनोवर ने 1814 में ज्ञात की।
अधिवृक्क ग्रंथियों का वर्णन पहले पहल गैलेन ने और फिर सूक्ष्म रूप से बार्थोलियस यूस्टेशियस (1614-1664) ने किया। सुप्रारीनल कैप्स्यूल शब्द का प्रयोग प्रथम बार जा रियोलान (1580-1657) ने किया। इसकी सूक्ष्म रचना का अध्ययन ऐकर (1816-1884) और आर्नाल्ड (1866) ने प्रारंभ किया।
पिनियल ग्रंथि का वर्णन गैलेन ने किया और टामस व्हार्टन ने इसकी रचना का अध्ययन किया। थाइमस ग्रंथि का वर्णन प्रथम शताब्दी में रूफास द्वारा मिलता है। अग्नाशय के अंतःस्रावी भाग का वर्णन लैगरहैंस ने 1868 में किया जो उसी के नाम से लैंगरहैंस की द्वीपिकाएँ कहलाती हैं। विक्टर सैंडस्टॉर्म ने 1880 में परा-अवटुका (पैराथाइरॉयड) का वर्णन किया। अब उसकी सूक्ष्म रचना और क्रियाओं का अध्ययन हो रहा है।
यद्यपि इन ग्रंथियों की स्थिति और रचना का पता लग गया था, फिर भी इनकी क्रिया का ज्ञान बहुत पीछे हुआ। हिप्पोक्रेटीज और अरस्तू अंडग्रंथियों का पुरुषत्व के साथ संबंध समझते थे और अरस्तू ने डिंबग्रंथियों के छेदन के प्रभाव का उल्लेख भी किया है, किंतु पूर्वोक्त ग्रंथियों की क्रिया के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान उन्हें नहीं हो सका था। इस क्रिया का कुछ अनुमान कर सकने वाला प्रथम व्याक्ति टामस विली था। इसी प्रकार पीयूषिका ग्रंथि का स्राव सीधे रक्त में चले जाने की बात रिचार्ड लोवर ने सर्वप्रथम कही थी। अवटका के संबंध में इसी प्रकार का मत टामस रूयश ने प्रकट किया।
इस संबंध में जान हंटर (1723-93) के समय से नया युग आरंभ हुआ। अन्वेषण विधि का उसने रूप ही पलट दिया। ग्रंथि की रचना, उसकी क्रिया (फिज़ियोलॉजी), उस पर प्रयोगों से फल तथा उससे संबद्ध रोग लक्षणों का समन्वय करके विचार करने के पश्चात् परिणाम पर पहुँचने की विधि का उसने अनुसरण किया। श्री हंटर प्रथम अन्वेषणकर्ता थे जिन्होंने प्रयोग प्रारंभ किए और प्रजनन ग्रंथियों तथा यौन संबंधी लक्षणों-पुरुषों में छाती पर बाल उगना, दाढी मूँछ निकलना, स्वर की मंद्रता आदि-का घनिष्ठ संबंध प्रदर्शित किया। सन् 1827 में ऐस्ले कूपर ने प्रथम अवटुका छेदन किया। इसके पश्चात् अंतःस्राव के मत को विद्वानों ने स्वीकार कर लिया और सन् 1855 में क्लोडबार्ड, टॉमस ऐडिसन और ब्राउन सीकर्ड के प्रयोगों से अंतःस्राव का सिद्धांत सर्वमान्य हो गया। ब्राउन सीकर्ड ने जो प्रयोग यकृत पर किए थे उनके आधार पर उसने यह मत प्रकाशित किया कि शरीर की अनेक ग्रंथियाँ, जैसे यकृत, प्लीहा, लसीका ग्रंथियाँ, पीयूषिका, थाइमस, अवटुका, अधिवृक्क, ये सब दो प्रकार से स्राव बनाती हैं, एक अत:स्राव, जो सीधा वहीं से शरीर में शोषित हो जाता है और दूसरा बहिस्राव, जो ग्रंथि से एक नलिका द्वारा बाहर निकलता है तथा शरीर की आंतरिक दशाओं और क्रियाओं का नियंत्रण करता है। उसने यह भी समझ लिया कि ये ग्रंथियाँ तंत्रिकातंत्र (नर्वस सिस्टम) के अधीन हैं। एक वर्ष के पश्चात् उसने प्रथम अधिवृक्कछेदन (ऐड्रिनेलैक्टोमी) किया। इसी वर्ष टामस ऐडिसन अधिवृक्कसंपुट के रोगफ़ नामक लेख प्रकाशित किया जिससे अंतःस्राव के सिद्धांत भली-भाँति प्रमाणित हो गए।
यद्यपि हिप्पोक्रेटीज के समय से विद्वानों ने इन ग्रंथियों के विकारों से उत्पन्न लक्षणों का वर्णन किया है, तथापि ऐडिसन का रोग प्रथम अंतःस्रावी रोग था जिसकी खोज और विवेचना पूर्णतया की गई। अवटुका के रोगों का वर्णन चार्ल्स हिल्टन, फ़ाग, विलियम गल आदि ने किया। प्रयोगशालाओं में ग्रंथियों से उनका सत्व तथा हारमोन पृथक् किए गए और उनको मुँह से खिलाकर तथा इंजेक्शन द्वारा देकर उनका प्रभाव देखा गया। सन् 1901 में अधिवृक्क से ऐड्रिनैलिन पृथक् किया गया। कैंडल ने अवटुका से थाइरॉक्सीन और बैटिंग तथा बेस्ट ने पक्वाशय से इंस्यूलिन पृथक् किया। ऐलेन ने ईस्ट्रिन और कॉक ने टेस्टोस्टेरोन पृथक किए। इन रासायनिक प्रयोगों से इन वस्तुओं के रासायनिक संघटन का भी अध्ययन किया गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि रसायनज्ञों ने इन वस्तुओं को प्रयोगशालाओं में तैयार कर लिया। इन कृत्रिम प्रकार से बनाए हुए पदार्थों को हारमोनॉएड नाम दिया गया है। आजकल इन्हीं का बहुत प्रयोग होता है।
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- Endocrinology (British online textbook)
- Endotext (American online textbook)
- Useful Endocrinology Resources for Residents
- Endocrinology journals from Elsevier
- Endocrinology news updates from Elsevier
- The Hormone Foundation
- Endocrinology Center medical in Thailand