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समुद्री जीवविज्ञान

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समुद्री जीवों का क्षेत्र और प्रजातियाँ

समुद्री जीवविज्ञान (Marine Biology) के अंतर्गत महासागरों, सागरों के अन्दर के एवं उनके तटों के पादप एवं प्राणियों की संरचना, जीवनवृत्त तथा उनकी प्रकृति का अध्ययन किया जाता है। ऐसे अध्ययन वैज्ञानिक तथा आर्थिक महत्व के होते हैं, जैसे खाद्य मछलियों के प्रवास (migration) का अध्ययन। समुद्री जीवविज्ञान के अध्ययन से समुद्री जीवों के जीवनवृत्त पर विभिन्न भौतिक एवं रासायनिक कारकों (जैसे ताप, दाब, प्रकाश, धारा, पादप पोषक, लवणता आदि) के विभिन्न प्रभावों को जानने में सहायता मिलती है।

समुद्री जीवों की किस्में

समुद्री जीव दो प्रकार के होते हैं - पौधे तथा प्राणी। समुद्र में केवल आदिम समूह थैलोफ़ाइटा (Thallophyta) और कुछ आवृतबीजी (Angiosperm) पौधे ही पाए जाते हैं। समुद्रों में मॉस (देखें हरिता) तथा पर्णांग (moss and fern) बिल्कुल नहीं पाए जाते। अधिकांश समुद्री पौधे हरे, भूरे तथा लाल शैवाल (algae) हैं (देखें शैवाल)। शैवाल आधार से संलग्नक द्वारा जुड़े रहते हैं। ये ५० मीटर से कम की गहराई में पाए जाते हैं। समुद्री पौधों में वास्तविक जड़ें तथा वाहिनीतंत्र नहीं होते, अत: ये पौधे अपनी सामान्य सतह से भोजन अवशोषित करते हैं। इन पौधों में जनन सूक्ष्म बीजाणुओं (spores) द्वारा होता है। इनके बीजाणु अस्पष्ट नर या मादा पौधे में, जिस युग्मकोद्भिद पीढ़ी (gametophyte generation) कहते हैं, परिवर्धित हो जो हैं। यह पीढ़ी फिर बीजाणु उत्पन्न करनेवाली बीजाणुउद्भिद् पीढ़ी (sporophytic generation) पैदा करती है। तैरते हुए परागकणों द्वारा निमग्न फूलों का परागण होता है, जिससे वास्तविक बीज बनते हैं। समुद्री प्राणियों द्वारा संलग्न पौधों का उपयोग खाद्य पदार्थ के रूप में किया जाता है। प्रमुख खाद्य सामग्री के रूप में सूक्ष्म उत्प्लावाक, डायटम (diatom), पादप समभोजी (holophytes) तथा डाइनोफ्लैजिलेट्स (dinoflagellates) ही प्रयुक्त होते हैं, क्योंकि ये अत्यधिक संख्या में पाए जाते हैं। इनका जनन भी सरलता से होता है। समुद्र में जीवाणुओं (bacteria) की संख्या भी अत्यधिक होती है, परंतु इनका महत्व केवल कार्बनिक वस्तुओं के क्षय (decay) तक ही सीमित है।

समुद्र में प्राणिजगत्‌ का असाधारण विकास हुआ है। लगभग सभी बड़े संघों के प्रतिनिधि और कुछ संघ, जैसे टिनोफोरा (Ctenophora), इकाइनोडर्मेटा (Echinodermata), फोरोनिडी (Phoronidea), ब्रैकियोपोडा (Brachiopoda) तथा कीटोग्नेथा (Chaetognatha), के समस्त प्राणी केवल समुद्र में ही पाए जाते हैं। अलवण जल की मछलियों का विकास समुद्री मछलियों से ही हुआ है। सरीसृप (reptilia) समूह के साँप तथा कछुए, स्तनपायी (mammalia) समूह के ह्वेल, समुद्री गाएँ (sea cows), सील (seal) तथा शिंशुक (propoise) आदि प्राणी समुद्र में पाए जाते हैं।

समुद्री जीव प्रदेश

समुद्री जीव-विज्ञान के अध्ययन को सरल बनाने के लिए समुद्री वातावरण को विभिन्न खंडों एवं प्रदेशों में विभक्त कर दिया गया है। यह विभाजन संयुक्त भौतिक एवं जैविक (physical and biological) निष्कर्ष पर आधारित है। प्रधानत: दो मुख्य प्रदेश होते हैं : (१) नितलस्थ (Benthic) और (२) वेलापवर्ती (Pelagic)। नितलस्थ प्रदेश में तलीय प्राणी तथावेलापवर्ती प्रदेश में तल से लेकर समुद्र की सतह तक के प्राणी आते हैं। ये दोनों प्रदेश एक दूसरे से सरलता से विभेदित किए जा सकते हैं। इनके कई उपखंड भी किए गए हैं।

नितलस्थ प्रदेश के ऊपरी भाग को वेलांचली (Littoral) भाग कहते हैं। वेलांचली भाग पुन: दो उपखंडों, यूलिटोरल (Eulittoral) तथा सबलिटोरल (sublittoral), में विभक्त किया गया है। गहरा समुद्री नितलस्थ निकाय (deep sea benthic system) भी दो क्षेत्रों में विभक्त किया गया है, पूर्व नितलस्थ (२०० से १,००० मीटर) तथा वितलीय नितलस्थ क्षेत्र (१,००० मीटर से समुद्र तल तक)। वेलांचली क्षेत्र के अंदर एक ज्वारांतर क्षेत्र भी होता है, जिसमें समुद्र का तटवर्ती क्षेत्र आता है। यह क्षेत्र ज्वार से आच्छादित तथा अनाच्छादित होता रहता है। इस क्षेत्र के संलग्न पादप साधारणतया धीमी गति से बढ़नेवाले तथा लचीले होते हैं, ताकि ये समुद्री लहरों से अपना बचाव कर सकें। ज्वारांतर क्षेत्र के प्राणियों की किस्म इस क्षेत्र के रेतीले अथवा चट्टानी किस्म पर निर्भर करती है। साधारणत: अनाच्छादित चट्टानी तट के प्राणी हृष्ट पुष्ट होते हैं। बहुधा इन प्राणियों के ऊपर भारी धारारेखित कवच (stream-lined shells) और चूषक सदृश रचनाएँ होती हैं। ये रचनाएँ बंद आसंजित कवच को चट्टानों से चिपकाए रखती हैं। इस प्रकार ये प्राणी समुद्री लहरों के प्रभाव से बचे रहते हैं और भाटा के समय अपने अंदर कुछ पानी रोक भी लेते हैं। बहुत से मोलस्का (Mollusca), नलिका कृमि (Tube worms) तथा बॉरनैकिल (Bornacles) स्थायी रूप से चट्टानों से जुड़े रहते हैं।

गहरे वेलांचली क्षेत्र में संलग्न पौधे अधिकता से पाए जाते हैं। प्रशांत महासागर के केल्प बेड (Kelp beds) में १०० फुट लंबे मैक्रोसिस्टिस (Macrocystis) तथा नेरिओसिस्टिस (Nereocystis) पाए जाते हैं, यद्यपि अधिकांश शैवाल छोटे होते हैं। इस क्षेत्र में आकर्षक लाल शैवाल पाए जाते हैं। इनका उपयोग ऐगार (agar) के उत्पादन में होता है।

सूर्य का प्रकाश गंभीर समुद्री नितलस्थ निकाय के केवल उथले क्षेत्र में ही संसूचित हो सकता है। वितलीय क्षेत्र में घोर अंधकार रहता है। इस क्षेत्र का पानी एक सा ठंडा रहता। इस क्षेत्र में मुख्य भोजन का उत्पादन नहीं होता। इस प्रकार मुख्य खाद्य की कमी के कारण यहाँ पर प्राणियों की संख्या भी कम होती है।

वेलापवर्ती क्षेत्र में प्लवक (plankton) तथा तरणक (nekton) अधिक पाए जाते हैं। इस क्षेत्र में समुद्रतल के ऊपर का सारा पानी आता है। तटीय जल से २०० मीटर तक के जल क्षेत्र को नेरेटिक प्रदेश (Neretic province) तथा इससे अधिक गहरे जल के क्षेत्र को महासागरी प्रदेश कहते हैं। यद्यपि इन दोनों प्रदेशों को एक दूसरे से अलग करनेवाली सीमा स्पष्ट नहीं होती, फिर भी इनमें अलग अलग किस्म के प्लवक तथा तरणक होते हैं। उदाहरण के लिए, तलीय प्राणियों के अंडे तथा बच्चे और जेली फिश (jelly fish) की एकल अवस्थाएँ नेरेटिक क्षेत्र के विशिष्ट अस्थायी प्लवक हैं। नेरेटिक डायटम अधिकाधिक सुप्त बीजाणु (resting spores) उत्पन्न करते हैं। ये बीजाणु प्रतिकूल परिस्थितियों में डूबकर तल में चले जाते हैं। महासागरी प्रदेश में अपेक्षाकृत अनुकूल परिस्थियाँ पाई जाती हैं। अत: इस क्षेत्र के पौधे नेरेटिक क्षेत्र की तरह सुप्त बीजाणु नहीं पैदा करते। महासागरी सतह के प्राणी नीले रंग के होते हैं। महासागरी क्षेत्र के गहरे जल में जहाँ सूर्य का प्रकाश या तो कम रहता है या रहता ही नहीं, प्राणियों का रंग बहुधा लाल, भूरा, बैंगनी काला, अथवा काला होता है। ३०० से ३५० मीटर तक की गहराई में पाए जानेवाले प्राणियों में, विशेषकर मछलियों में, प्रकाशोत्पादक अंग पाए जाते हैं। ये अंग विशिष्ट प्रतिरूपों में व्यवस्थित रहते हैं (देखें, मत्स्य)। संभवत: इससे अन्य प्राणियों को पहचानने में सुविधा होती है। मध्यवर्ती गहराई के नीचे अंधी मछलियाँ (blind fishes) तथा स्क्विड (squid) पाए जाते हैं। इनमें प्रकाशोत्पादक अंग नहीं होते। तलीय मछलियों (bottom living fishes) को आँखें होती हैं। संभवत: इनका उपयोग वे प्रकाशोत्पादक अंग द्वारा उत्पन्न प्रकाश में करती हैं।

समुद्र के मूल पारिस्थितिक कारक (Ecological Factors)

ये निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं :

(१) भौतिक-रसायनिक कारक तथा

(२) जैव कारक।

भौतिक-रसायनिक कारक

जैविक महत्व के भौतिक-रसायनिक कारक साधारणतया परस्पर प्रभावशील होते हैं। ये कारक विभिन्न एवं जटिल तरीकों से जीवों के ऊपर प्रभाव डालते हैं।

समुद्री जल माध्यम

समुद्री जल रासायनिक दृष्टि से अत्यधिक योग्य जैविक माध्यम है, क्योंकि इसमें जीवों की संरचना तथा पोषण के लिए आवश्यक तत्व विलयन के रूप में मौजूद रहते हैं। समुद्री जल की लवणता और अधिकांश समुद्री जीवों के, विशेषकर अपृष्ठवंशियों के, देह तरल (body fluid) की लवणता लगभग समान होती हैं। इससे बाह्य वातावरण और आंतरिक देह तरल के मध्य अनुकूल परासरण संबंध बना रहता है। यह समपरासारी संबंध (isotonic relationship) देह में तरल की उचित सांद्रता को बनाए रखने में उत्सर्जन अंगों को सहायता पहुंचाता है। इसी कारण इन प्राणियों में अभेद्य कला की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह अलवण जल के प्राणियों की अतिपरासारी (hypertonic) दशा से सर्वथा भिन्न है, जिसे देह तरल बाह्य वातावरण की अपेक्षा अधिक सांद्र होने के कारण परासरण द्वारा तनु होता रहता है।

सामान्यत: समुद्री जल क्षारीय होता है और उसकी बफर (buffer) क्षमता के कारण समुद्री जल के पीएच आयन सांद्रता (pH-ion concentration) में कोई भी परिवर्तन नहीं हो पाता है। यह कैल्सियम अवक्षेपक प्राणियों के लिए वरदान सदृश है।

समुद्री जल का घनत्व अकवचित प्राणियों को, जैसे जेली फिश, सो ऐनीमोन (sea anemone) तथा श्लथ पौधों को, यांत्रिक सहायता पहुंचाता है और सभी वेलापवर्ती जीवों के उत्प्लावन में सहायक होता है।

ताप

समुद्री वातावरण का ताप - २° से ३०° सें. के मध्य रहता है। जैविक क्रियाओं का ताप द्वारा नियंत्रित होने का एक उत्कृष्ट उदाहरण कैल्सियम अवक्षेपण में मिलता है। गरम जल में कैल्सियम लवण का अवक्षेपण ठंडे जल की अपेक्षा अधिक श्घ्रीाता से होता है। इसी कारण भारी कवचित प्राणियों का उष्ण कटिबंधी जल में बाहुल्य है। भित्ति (reef) उत्पादित करनेवाले प्रवालों (corals) की वृद्धि के लिए २०° सें., या इससे ऊपर, का ताप उपयुक्त होता है। इस कारण ये प्रवाल कम अक्षांश के उथले जल में ही पाए जाते हैं।

ऊष्ण कटिबंधी सागरों में पाए जाने वाले प्राणियों के स्पीशीज़ की संख्या ठंडे समुद्रों की अपेक्षा अधिक है, पर जनसंख्या का घनत्व साधारणतया कम है। ठंडे जल के प्राणियों का आकार उसी जाति के गरम जल में पाए जानेवाले प्राणियों से बड़ा होता है। प्लवकों के बारे में यह कहा जा सकता है कि ठंडे जल की अधिक श्यानता (viscosity) इसके लिए अंशत: उत्तरदायी है, क्योंकि अधिक श्यानता के कारण बड़े आकार के जीव कम ऊर्जा व्यय करने के बाद भी अधिक दिनों तक जीवित रहते हैं २५° सें. से ०¢ सें. ताप हो जाने पर श्यानता दुगनी हो जाती है। यह परिवर्तन करनेवाले जीवों के लिए, जिनका घनत्व इस प्रकार के जल के समान होता है, अत्यधिक महत्वपूर्ण है। ठंढे जल के जीवों में लैंगिक परिपक्वता के पूर्व का वर्धनसमय लंबा होता है और संभव है कि इसी कारण इन जीवों का आकार तथा वायु बड़ी होती हो।

ऑक्सीजन

समुद्री जल में ऑक्सीजन की अधिकतम मात्रा केवल नौ मिली। प्रति लीटर होती है, जबकि हृदय में यह मात्रा २०० मिली। प्रति लीटर होती है। महासागरों के मध्य गहराई में न्यूनतम ऑक्सीजन स्तर (minimum oxygen layer) पाया जाता है। तल पर याइ सके पास खाड़ियों में ऑक्सीजन या तो बहुत कम, या नहीं ही पाया जात है। इस कारण तल के अधिकांश जीव पराश्रयी होते हैं। समुद्री प्राणियों में प्राय: ऑक्सीजन की निम्न मात्रा के प्रति सहन शक्ति की अधिकतम क्षमतप होती है इसका प्रमाण कैलेनस (Calanus) का, ७०° सें. तापवाले जल से जिसमें ऑक्सीजन की मात्रा एक मिली। प्रतिश् लीटर से भी कम थी, प्राप्त होना है।

मंदगामी नितलस्थ प्राणी कभी कभी अत्यधिक न्यून मात्रा वाले तलीय कीचड़ में पाए जाते हैं। जहाँ ऑक्सीजन बिल्कुल नहीं होता है, वहाँ केवल अनॉक्सी जीवाणु (anaerobic bacteria) ही जीवित रह सकते हैं। ऑक्सीजनहीन बहुत स वातावरण हैं, उदाहरण के लिए कृष्ण सागर का गहरा जल। साधारणत: महासागरों में प्राणी के श्वसन के लिए प्रचुर ऑक्सीजन पाया जाता है।

प्रकाश

यह पौधों के प्रकाशसंश्लेषण (photosynthesis) में प्रयुक्त होनेवाली ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है। प्रकाश का प्राणियों की संरचना एवं उनके व्यवहार के साथ भी घनिष्ठ संबंध होता है। प्रकाश वेलापवर्ती प्राणियों के दैनिक प्रवास (migration) के नियंत्रण में उद्दीपन का कार्य करता है। यह कार्य विशेषतया ५० से ३०० मी. तक गहराई में पाए जानेवाले प्लवकों के दैनिक प्रवास में होता है।

सूर्य के प्रकाश में कोपिपोडा (Copepoda) तथा कीटोग्नथा (Chaetognatha) समूह के प्राणी समुद्र सतह से दूर अंदर की ओर चले जाते हैं, परंतु सूर्यास्त के समय धीरे धीरे सतह की ओर आने लगते हैं। इन दोनों समूहों के प्राणियों की संख्या समुद्र की सतह पर सूर्यास्त से मध्य रात्रि तक अधिक रहती है।

३०० से १००० मी. तक की गहराई में सूर्य के प्रकाश की कमी तथा वितलीय गहराई में सूर्य के प्रकाश की अनुपस्थिति के कारण वहाँ के प्राणियों में विविध रूपांतरण एवं अनुकूलन पाए जाते हैं, जैसे एकसमान शारीरिक रंग, प्रकाशोत्पादक रचनाएँ आदि। प्रकाशोत्पादक रचनाओं सहित विभिन्न प्रकार के स्पर्शक अंग (tentacular organs) इन प्राणियों की विशिष्टता हैं।

पादप पोषक

समुद्री जल में, इसके खारेपन के लिए आवश्यक लवणों के अतिरिक्त, कुछ पोषक लवण, जैसे नाइट्रेट (nitrates), फ़ॉस्फेट् (phosphates), लोहा आदि, भी होते हैं। लवणता की तरह पोषक लवणों की सांद्रता पादप प्लवकों के अनियमित प्रयोग के कारण बदलती रहती है।

जल परिसंचरण

यह पौधों की वृद्धि के लिए एक मुख्य कारक है। आरोही जलधारा, या मंद गति विसरण (diffusion), द्वारा ही पादप पोषकों का परिवहन गहरे स्तर से ऊपरी सतह पर होता है। उथले जल में परिसंचरण पर्याप्त गहरा होता है, ताकि वहाँ पर पोषक तत्व इसके साथ खिंचकर ऊपर आ सकें। इसलिए तटीय क्षेत्र में समुद्री जीव प्रचुरता से पाए जाते हैं।

प्राणियों के साथ जल संचरण का संबंध प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से परिस्थितिकारक ही होता है। जल संचरण के साथ जल का वायु परिसंचरण भी होता है।

जैव कारक (Organic Factors)

इसके अंतर्गत जीवों के पारस्परिक संबंधों का अध्ययन श्किया जाता है। ये मुख्यत: पोषण संबंधी होते हैं। इन संबंधों की मूल अभिमुखता (fundamental aspect) की जानकारी के लिए हम पहले सूक्ष्म जीवों (पादप प्लवक तथा प्राणि प्लवक) का वर्णन करेंगे।

वेलापवर्ती जीव

समुद्रतल के केवल २ प्रतिशत भाग में ही, संलग्न पौधों की वृद्धि के लिए, सूर्य का यथेष्ट प्रकाश पहुंच पाता है और इसका भी अधिकांश पौधों के लिए उपयोगी नहीं होता। विपुल पादप पोषकों के उपयोग के लिए समुद्र की सतह से ५० मीटर की गहराई तक डायटम, डाइनाफ्लैजिलेट् तथा दूसरे सूक्ष्म पादपों ने अपना निष्क्रिय प्लवमान अस्तित्व बना लिया है। इन पादपों के प्लवमान होने का एक प्रमुख कारण इनका छोटा आकार है। शूल परिवर्धन तथा कोशिकाओं द्वारा माला निर्माण इन पौधों के अतिरिक्त अनुकूलन हैं। इन सभी कारणों से इन पौधों की जनसंख्या में यथेष्ट वृद्धि हुई। अन्य कई विशेष कारणों से इन पौधों की जनसंख्या में यथेष्ट वृद्धि हुई। अन्य कई विशेष कारणों से केवल ये ही पौधे अपना एकाधिकार बनाए हुए हैं। सैरागॉसा (Saragossa) समुद्र में मुक्त रूप से पाए जानेवाले सैरागॉसम के अपतृण (Saragossam weed) इसका अपवाद हैं। यह एक वेलांचली शैवाल (littoral algae) है, जो समुद्री धाराओं के साथ इस क्षेत्र में आ गया है।

प्रकीर्णित एवं सूक्ष्म पादपों के विपुल संभरण के उपयोग के लिए, विशेष प्रकार के पादपभोजी जीवों की आवश्यकता पड़ी। इस माँग की पूर्ति के लिए शाकाहारी "फिल्टर फीडरों' (Filter feeders) का एक प्लवकीय समूह, जिसमें मुख्यत: कोपिपोडा (Copepode) समूह के छोटे छोटे प्राणी (०.०५ से ८ मिमी.) हैं, उत्पन्न हुआ। इन समूहों की संख्या अत्यधिक है। इनके अतिरिक्त प्रोटोज़ोआ (Protozoans), नितलस्थ अपृष्ठवंशियों की अर्भक अवस्थाएँ तथा कुछ विशेष मछलियाँ भी छोटे छोटे पादपभोजी हैं।

इन छोटे छोटे पादपभोजियों के दो मुख्य कार्य हैं : (१) सूक्ष्म प्राथमिक पोषकों का उपयोग तथा (२) प्राथमिक पोषकों का प्राणी पोषक में परिवर्तन। इस परिवर्तित भोजन का उपयोग प्लवक भोजी मछलियाँ, जैसे हेरिंग (Herring), मैक्रल (Mackeral) आदि, करती हैं। ये मछलियाँ कोपिपोड्स तथा अन्य प्लवकों को भी खाती हैं। स्तनपायी समूह का एक प्रमुख प्लवकभोजी ह्वेलबोल ह्वेल (whale-bone Whale) है। यह सबसे बड़ा ज्ञात प्राणी है।

वेलापवर्ती परभक्षी प्राणियों में ह्वेल का नाम उल्लेखनीय है। स्पर्म ह्वेल (sperm whale) स्किवड आदि को खाने के लिए गहरे पानी में गोता लगाता है। परभक्षियों में सर्वाधिक बहुभोजी किलर ह्वेल (Killer Whale) है।

नितलस्थ जीव

समुद्र तल में रहनेवाले प्राणियों की संरचना तथा पोषण सिद्धांत के अध्ययन के लिए समुद्री जल में निलंबित सूक्ष्म जीवों का अस्तित्व महत्वपूर्ण है। बारनेकिल (barnacle), क्लैम (clam), मसल (mussels), स्पंज (sponges), नलिका कृमि (tube worm) आदि डूबते हुए प्लवकों को खाते हैं। इन प्राणियों को निलंबन भोजी (suspension feeder) कहते हैं। समुद्री जल में ग्रहणशील नितलस्थ भोजी प्राणियों की भी कमी नहीं हैं। केकड़ा (crab), लॉब्सटर (lobster), तलीय मछलियाँ, सेफैलोपॉड (Cephalopods), सी-स्टार (sea star) आदि अपमार्जकों, प्लवकों तथा स्वयं एक दूसरे को खाते हैं।

बहुत से नितलस्थ प्राणी विशिष्ट समुदायों में रहते हैं। एक समुदाय के विभिन्न प्राणियों में एक ही प्रकार की आवश्यकताएँ तथा खारेपन की एक ही सहनक्षमता होती है। ऐसे प्राणी वातावरण को ऐसा बना सकते हैं ताकि उनके समान अन्य प्राणी भी उनके समुदाय में सम्मिलित हों सकें। ऐसा वे आगंतुक प्राणियों को अपने समुदाय में भोजन, शरण तथा आवश्यक पदार्थों को देकर करते हैं। समुद्री प्राणियों में सहवास भी पाया जाता है। समुदाय के अंदर रहनेवाले प्राणियों में अन्य ऐच्छिक तथा घनिष्ठ संबंध, जैसे सहयोजिता (commensalism), सहजीवन, परजीविता आदि, भी पाए जाते हैं।

समुद्री जीवविज्ञान के अध्ययन के तरीके

किसी भी क्षेत्र के समुद्री जीवों की खोज की प्रारंभिक प्रक्रिया वर्णनात्मक होती है। इसमें उस क्षेत्र के पादप तथा प्राणियों की पहचान, उनका आकार तथा उनकी स्थिति आदि का उल्लेख किया जाता है। यह कार्य किसी नए क्षेत्र के लिए अत्यंत कठिन होता है। इसके लिए जीवविज्ञान की भिन्न भिन्न शाखाओं के विशेषज्ञों की आवश्यकता पड़ती है। इन विशेषज्ञों द्वारा प्रकाशित सूचना में प्रत्येक स्पीशीज़ का वर्णन संगृहीत रहता है। ये सूचनाएँ बाद के विश्लेषणात्मक अध्ययन करने वाले खोजकर्ताओं के लिए लाभप्रद होती हैं।

जीवों के संग्रह और विश्लेषण करने के तरीके तथा संगृहीत करने के बाद इनका अध्ययन खोजकर्ता के उद्देश्य पर निर्भर करता है। ये उद्देश्य वर्गिकी (Taxonomy), पारिस्थितिकी (Ecology), भ्रूण विज्ञान आदि से संबंधित हो सकते हैं। इन उद्देश्यों के साथ साथ जीवों के प्रकार तथा उनके वातावरण का भी अध्ययन किया जाता है। "चैलेंजर' में डार्विन की प्रसिद्ध खोज यात्रा के बाद से अजैव कारकों के खोज में प्रयुक्त होनेवाले उपस्करों (equipments) तथा प्रक्रियाओं में काफी उन्नति हो गई है। समुद्र में किसी भी गहराई का ताप जानने के लिए प्रतिवर्ती तापमापी का, उपयोग किया जाता है। वैथी तापलेखी (Bathy thermograph) द्वारा समुद्र की सतह से लेकर तल तक के ताप का निरंतर अभिलेख प्राप्त हो जाता है। प्रकाश की तीव्रता प्रकाश-वैद्युत-यंत्र (photoelectric apparatus) से मापी जाती है। रासायनिक प्रक्रिया के अंतर्गत ऑक्सीजन का मानांकन, लवणता तथा अन्य मुख्य पादप पोषक लवणों का अध्ययन किया जाता है।

पारिस्थितिक जानकारी के लिए किसी क्षेत्र के एक इकाई अवकाश (unit space) में पाए जानेवाले किसी स्पीशीज़ के व्यष्टियों की संख्या का निर्धारण एवं बाह्य वातावरण से संबंधों का अध्ययन किया जाता है। समुदाय के अन्य पादपों एवं प्राणियों से इनके पोषण संबंध का अध्ययन भी पारिस्थितिकी के अंतर्गत ही आता है। भ्रूण विज्ञान के अध्ययन के लिए जीवित नमूने प्रयोगशाला में लाए जाते हैं, जहाँ इनके जीवनवृत्त की प्रत्येक अवस्थाओं का विस्तृत अध्ययन किया जाता है। विभिन्न प्रकार के पौधे तथा उनके बीजाणु भी अध्ययन हेतु लाए जाते हैं। अन्य प्रकार के अध्ययन भरी, जैसे परासरणी संतुलन (osmotic balance), ऑक्सीजन की खपत, प्रकाशीय प्रभाव आदि, किए जाते हैं।

ज्वारांतर प्रदेश के नितलस्थ संग्रह में साधारण खुदाई करनेवाले उपकरणों का प्रयोग किया जाता है। गहरे जल में निकर्षण (dredge) करने के लिए शक्तिचालित अथवा पाल नौकाओं का उपयोग किया जाता है। सूक्ष्म पादप प्लवकों को अधिक मात्रा में एकत्रित करने के लिए, रेशम के बने जालों का उपयोग होता है। परंतु गुण विषयक अध्ययन के लिए "जल बोतल' (शीशे का १ ली। क्षमतावाले बेलनाकार बर्तन), जिनको किसी भी ऐच्छिक गहराई पर बंद किया जा सकता है, प्रयुक्त होते हैं। प्राणिप्लवकों का वितरण अनियमित होने के कारण बड़े बड़े जालों का उपयोग किया जाता है। व्यापारिक दृष्टिकोण से मछलियों का पकड़ना एवं उनका अध्ययन भी इसी विज्ञान का एक अंग है। इसके लिए विभिन्न प्रकार के उपकरण परिस्थिति विशेष में प्रयुक्त होते हैं।

संसार के प्राय: सभी देशों में विशेष समुद्री जैवकेंद्र स्थापित किए गए है। इनमें से कुछ विश्वविद्यालयों एवं शेष सरकार के अधीन हैं। इन केंद्रों पर बड़ी बड़ी प्रयोगशालाएँ होती हैं, जिनमें भिन्न भिन्न विषयों के विशेषज्ञों द्वारा पादपों तथा प्राणियों के संबंध में शोध किए जाते हैं।

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