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शीतनिष्क्रियता

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समशीतोष्ण और शीतप्रधान देशों में रहनेवाले जीवों की उस निष्क्रिय तथा अवसन्न अवस्था को शीतनिष्क्रियता (hybernation) कहते हैं जिसमें वहाँ के अनेक प्राणी जाड़े की ऋतु बिताते हैं। इस अवस्था में शारीरिक क्रियाएँ रुक जाती हैं या बहुत क्षीण हो जाती है, तथा वह जीव दीर्घकाल तक पूर्ण निष्क्रिय होकर पड़ा रहता है। यह अवस्था नियततापी (warm blooded) तथा अनियततापी (coldblooded), दोनों प्रकार के प्राणियों में पाई जाती है।

नियततापी प्राणी

चिड़ियों में शीतनिष्क्रियता नहीं होती। स्तनपायी जीवों में से यह कीटभक्षी चमगादड़ों, कई जाति के मूषों तथा अन्य कृंतकों आदि के शारीरिक ताप का शीतनिष्क्रिय अवस्था में, नियंत्रण नहीं हो पाता। इस अवस्था में हो जाने पर वे अनियततापी हो जाते हैं, किंतु भालू, स्कंक (skunk) और रैकून (racoon) में यह नहीं होता। ये नियततापी ही बने रहते हैं। ध्रुव प्रदेशीय मादा भालू तो इसी अवस्था में बच्चे देती है।

मूषों, गिलहरियों तथा चमगादड़ों में शारीरिक ताप गिरकर, वातावरण से केवल कुछ अंश अधिक बना रहता है। निष्क्रियता की अवधि तथा अवसन्नावस्था की गहराई में भी भेद होता है। मौसिम तथा जीव की जाति के अनुसार अवधि भिन्न होती है।

अनियततापी प्राणी

अकशेरुकी प्राणियों में से अनेक, निष्क्रिय अथवा पुटीभूत अवस्था में, शीतकाल बिताते हैं। तितलियाँ तथा मक्खियाँ यही करती हैं। साधारण घोंघा निरापद स्थान में जाकर, अपने कवच के मुँह को कैल्सियमी प्रच्छद से ढँक लेता है और अवसन्न हो पड़ा रहता है।

निम्न वर्ग के अन्य अनियततापी प्राणियों की तथा अकशेरुकों की शीतनिष्क्रियता में अधिक भेद नहीं होता। अनेक मछलियाँ और मेढ़क मिट्टी, कीचड़ आदि में घुसकर बैठ जाते हैं। साँप, छिपकली आदि पत्थरों या लकड़ी के कुंदों आदि के नीचे शीतकाल में निष्क्रिय पड़े रहते हैं। इनके शरीर का ताप वातावरण के ताप से केवल एक या दो डिग्री अधिक बना रहता है। पाले से जमा देनेवाले शीत में मेढ़क तथा इन अन्य जीवों की मृत्यु हो जाती है।

शारीरिकी

शीतनिष्क्रियता का कारण केवल शीत से निष्क्रिय होनेवाले जीवों की दशा अत्युष्ण वातावरण में भी वैसी ही हो जाती है तथा शीतनिष्क्रिय स्तनपायी जीव, शीत बहुत बढ़ जाने पर, अधिक गहरी नींद में हो जाने के बदले जग जाते हैं। सामान्यत: 12डि-15डि सें. ताप हो जाने पर, शीतनिष्क्रियता व्यापने लगती है, किंतु एक ही जाति के अन्य जीव अधिक शीत पड़ने पर भी अधिक काल तक क्रियाशील बने रह सकते हैं।

निष्क्रियता का आगमन मोटापे से संबद्ध जान पड़ता है। क्रियाशीलता के काल के अंत में जंतु बड़ा मोटा हो जाता है और निष्क्रियता के काल में उसकी चर्बी ही शरीर के आहार के काम आती है। जो जीव यथेष्ट चर्बी नहीं एकत्रित कर पाते, वे जल्दी निष्क्रिय नहीं होते। निष्क्रिय अवस्था में होनेवाले जंतुओं का शारीरिक ताप, अन्य जंतुओं की अपेक्षा, अधिक परिवर्तनशील होता है और पूर्णत: निष्क्रिय होने पर वह 2डि-4डि सें. ही रह जा सकता है। हृदयगति मंद हो जाती है और जागने पर एकाएक बढ़ जाती है। श्वसन धीमा हो जाता है। हिम मूष (marmots) तो तीन मिनिटों में केवल एक बार साँस लेने लगता है। अवशोषित ऑक्सीजन और उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड का अनुपात, जाग्रत अवस्था की तुलना में, कम हो जाता है। स्पर्श की अनुभूति यद्यपि कम हो जाती है, तथापि तंत्रिका तंत्र पूर्ण निष्क्रिय नहीं होता।

यदि शरीर का ताप 14डि-16डि सें. हो जाता है, तो जंतु प्राय: जाग जाते हैं। कुछ जंतुओं के जागने में कई घंटे जगते हैं, किंतु कुछ, जैसे चमगादड़, कुछ मिनटों में ही होश में आ जाते हैं। बाह्य ताप की वृद्धि के अतिरिक्त, हिलाने डुलाने तथा अति शीत पड़ने पर भी निष्क्रिय जंतु जाग जाते हैं।

इस बात के प्रमाण हैं कि निष्क्रियता का नियंत्रण मस्तिष्क, संभवत: मध्य मस्तिष्क, के केंद्रों तथा अंत:स्रावी तंत्र द्वारा होता है, किंतु अत:स्रावी परिवर्तनों का ठीक पता नहीं है। इसलिए अंत:स्रावी ग्रंथियों वाली मान्यता को पूर्णत: सिद्ध नहीं कहा जा सकता है।

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