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मैक्स मूलर
मैक्स मूलर | |
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युवावस्था में मैक्स मूलर
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जन्म | फ़्रीड्रिश मैक्स मूलर 6 दिसंबर 1823 डेसाऊ, डची ऑफ एनहाल्ट, जर्मन परिसंघ |
मृत्यु | 28 अक्टूबर 1900 (उम्र 76) ऑक्सफोर्ड, ऑक्सफ़र्डशायर, इंग्लैंड |
व्यवसाय | लेखक, स्कॉलर |
राष्ट्रीयता | जर्मन/ब्रिटिश |
शिक्षा | यूनिवर्सिटी ऑफ लीपज़िग |
उल्लेखनीय कार्यs | 'द सेक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट', 'चिप्स फ्रॉम ए जर्मन वर्कशॉप' |
जीवनसाथी | जॉर्जीना एडिलेड ग्रेनेफेल |
सन्तान | विल्हेम मैक्स मूलर |
हस्ताक्षर |
फ़्रीड्रिश मैक्स मूलर (Friedrich Max Müller; ०६ दिसम्बर १८२३ - २८ अक्टूबर १९००) एक जर्मनवासी था जो ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का कर्मचारी था। वह एक जर्मन भाषाविद, वेद तथा प्राच्य विद्या विशारद था। । जन्म से जर्मन होने के बावजूद उसने अपना अधिकांश जीवन इंग्लैण्ड में बिताया और वहीं अध्ययन भी किया। वह पाश्चात्य शैक्षणिक भारतविद्या तथा तुलनात्मक धर्मशास्त्र का संस्थापक था।
अनुक्रम
जीवनी
6 दिसंबर 1823 को मैक्स मूलर का जन्म जर्मनी के देसो नामक शहर में हुआ था। उसके पिता विल्हेम मूलर जाने-माने कवि थे। मैक्स मूलर जब 4 साल का हुआ तो उसके पिता का निधन हो गया। 6 साल की उम्र में मैक्स मूलर ने जर्मनी के एक ग्रामर स्कूल में शिक्षा लेनी शुरू की। 1843 में उच्च शिक्षा की डिग्री हासिल की। इसके बाद से ही मैक्स मूलर, संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, अरबी और फारसी जैसी प्राचीन भाषाओं की ओर रुचि दिखाने लगा।
1846 में मैक्स मूलर इंग्लैंड पहुंच गया और संस्कृत पर अनुस्न्धान के साथ-साथ ऋग्वेद का अनुवाद करने लगा। यहां बुन्सेन और प्रो. एच.एच. विल्सन ने ऋग्वेद के अनुवाद में मैक्स मूलर की बहुत सहायता की। 1848 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में ऋग्वेद का मुद्रण शुरू हुआ और मैक्स मूलर ने इसी स्थान को अपना घर बना लिया। 1850 में मैक्स मूलर को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में आधुनिक यूरोपी भाषा के प्रोफेसर की नौकरी मिल गई।
भाषाशास्त्र में विशेषज्ञता
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में रहते हुए मैक्स मूलर ने कई लेख लिखे, जिन्हें बाद में ‘चिप्स फ्रॉम ए जर्मन वर्कशाप’ शीर्षक से संग्रह रूप में प्रकाशित किया गया। 1859 में मैक्स मूलर ने ‘हिस्ट्री आफ एंशेंट संस्कृत लिटरेचर’ प्रकाशित की। मैक्स मूलर चाहता था कि ऑक्सफोर्ड में उसे संस्कृत विभाग का आचार्य बनाया जाए, लेकिन पद रिक्त होने के बाद भी मैक्स मूलर को नहीं चुना गया। वजह थी कि मैक्स मूलर विदेशी था। इस घटना से मैक्स मूलर को काफी गहरा झटका लगा। हालांकि, 1868 में मैक्स मूलर को भाषाशास्त्र का आचार्य बना दिया गया।
मैक्स मूलर ने 1861 और 1863 में ‘रॉयल इंस्टीट्यूशन’ के सामने भाषाविज्ञान सम्बन्धी कई व्याख्यान दिए। बाद में मैक्स मूलर के ये व्याख्यान ‘लेक्चर्स ऑन सायंस ऑफ लैंग्वेजज’ के नाम से प्रकाशित हुए। मैक्स मूलर ने भाषा विज्ञान को ‘भौतिक विज्ञान’ की श्रेणी में माना है, जबकि यह वस्तुत: ऐतिहासिक या सामाजिक विज्ञान की एक विद्या है। मैक्स मूलर ने भाषाशास्त्री के लिये संस्कृत के अध्ययन की आवश्यकता को इतना महत्व दिया कि उनके शब्दों में, ‘संस्कृत-ज्ञान-शून्य तुलनात्मक भाषाशास्त्री उस ज्योतिषी के समान है, जो गणित नहीं जानता।‘
ग्रामोफोन और मैक्स मूलर
थॉमस एल्वा एडिसन अपने ग्रामोफोन का आविष्कार कर चुके थे और और यह गलत जानकारी कुछ लोगों ने प्रचलित कर दी है कि उन्होंने अपने कुछ शब्दों के चुनाव की जिम्मेदारी मैक्समूलर को सौंपी थी। इस जानकारी के अनुसार ये शब्द ऋग्वेद से लिए गए थे और फोनोग्राफ में रिकॉर्ड होने वाले पहले शब्द थे। सच्चाई ये है कि फोनोग्राफ में सुना गया पहला वाक्य था-मेरी हैड ए लिटिल लैम्ब।
मैक्स मूलर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य 51 जिल्दों में ‘सैक्रेड बुक्स ऑफ़ दि ईस्ट’ (पूर्व के धार्मिक-पवित्र-ग्रंथ) का संपादन रहा है। यह कार्य 1875 में शुरू किया गया था, लेकिन तीन जिल्दों के अलावा सारा कार्य मैक्स मूलर के जीवनकाल में ही प्रकाशित हो चुका था। मैक्स मूलर ने ‘भारतीय दर्शन’ पर भी रचनाएं की थीं। अंतिम दिनों वह बौद्ध दर्शन में अधिक रुचि रखने लगा था। 28 अक्टूबर 1900 को ऑक्सफोर्ड में ही मैक्स मूलर का निधन हुआ।
हिन्दू धर्म का शुभचिन्तक या शत्रु?
फ्रेडरिक मैक्समूलर एक ऐसा नाम है जिसे ब्रिटिश शासनकाल में ब्रिटिश राजनीतिज्ञों, प्रशासकों और कूटनीतिज्ञों ने एक सदी (१८४६-१९४७) तक लगातार हिन्दुओं का एक अभिन्न मित्र और वेदों के महान विद्वान के रूप में प्रस्तुत किया ! परन्तु क्या यह सत्य है
अंग्रेज शासक लगातार यही प्रचार करते रहे कि मैक्समूलर तो वेदों का महान विद्वान और हिन्दू धर्म तथा हिन्दुओं का शुभचिंतक है ! अंग्रेज अपने इस कथन की पुष्टि इस बात से करते हैं कि उसने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में १८४६ से १९०० तक वेदों और हिन्दू धर्मशास्त्रों पर एक विशाल साहित्य स्वंय लिखा तथा अपने जैसे सहयोगी लेखकों द्वारा लिखवाकर उसे स्वयं संपादित किया !
अब यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि क्या मैक्समूलर वास्तव में वेदों और हिन्दू धर्म शास्त्रों का प्रशंसक और भारत का मित्र था ? क्या वह वेदों, उपनिषदों, दर्शनों आदि के उदात्त, प्रेरणादायक और आध्यात्मिक चिंतन से प्रभावित था, और उन्हें वह अंग्रेजी माध्यम से विश्वभर में फैलाना चाहता था ? क्या वह भारतीय धर्मशास्त्रों का जिज्ञासु था ? क्या उसने ऋग्वेद का भाष्य भारतीय प्राचीन या स्कीय-पाणिनीय पद्धति के अनुसार किया था ? उसने सायण-भाष्य को ही आधार क्यों माना ? क्या उसने सायण के सभी मापदण्डों को अपनाया ? यदि नहीं, तो क्यो ? आखिर उसे वेदों में क्या मिला ?
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- “……I have traveled across the length and breadth of India and I have not seen one person who is a beggar, who is a thief. Such wealth I have seen in this country, such high moral values, people of such caliber, that I do not think we would ever conquer this country unless we break the very backbone of this nation which is her spiritual and cultural heritage and therefore. I propose that we replace the old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign, and English is good and greater than there own, they will loose their own self esteem their nature culture and they will become what we want them a truly dominated nation.”
(2 Feb. 1835 Proc. On education).
अर्थात् ”मैंने सारे भारत का भ्रमण किया है और मैंने एक भी व्यक्ति को चोर और भिखारी नहीं पाया है ! मैंने इस देश में इतनी सम्पदा देखी है तथा इतने उच्चनैतिक आदर्श देखें हैं और इतने उच्च योग्यता वाले लोग देखें हैं कि मैं नहीं समझता कि हम कभी इसे जीत पाऐंगे जब तक कि इसके मूल आधार को ही नष्ट न कर दें जो कि इस देश की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर है और इसीलिए मैं प्रस्तावित करता हूँ कि हम उसकी प्राचीन और पुरानी शिक्षा पद्धति और उकीस संस्कृति को बदल दें क्यों यदि भारतीय यह सोचने लगें कि जो कुछ विदेशी और अंग्रेजी है, वह उनकी अपनी संस्कृति से अच्छा और उत्तम है तो वे अपना स्वाभिमान एवं भारतीय संस्कृति को खो देंगे और वे वैसे ही हो जायेंगे जैसा कि हम चाहते हैं, पूरी तरह एक पराधीन राष्ट्र !”
(२ फरवरी १८३५, प्रोसी, शिक्षा)
”उसने सच्चाई से स्वीकारा भी कि भारत में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की स्थापना का उद्देश्य वास्तव में, ऊँची जातियों के हिन्दुओं को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने का था और ऐसा ही उसने कलकत्ता से, १२ अक्टूबर १८३६ को, अपने पिता को एक पत्र में लिखा भी थाः
- “Our English schools are flourishing wonderfully. We find it difficult,–indeed, in some places impossible,– to provide instructions for all who want it. At the single town of Hoogly fourteen hundred boys are learning English. The effect of this education on the Hindoos is prodigious. No Hindoos, who has received an English education, ever remains sincerely attached in his religion. Some continue to profess it as a matter of policy; but many profess themselves pure Deists, and some embrace Christianity. It is my firm belief that if, our plans of education are followed up, there will not be a single idoiater among the respectable classes in Bengal thrity years hence. And this will be effectetd without any efforts to proselytise; without the smallest interference with religious liberty; merely by the natural operation of knowledge and reflection. I heartily rejoice in the prospects…”
- Within half a year after the time when you read this we shall be making arrangements for our return…… I feel as if I never could be unhappy in my own country; as if so exist on English ground and among English people, seeing the old familiar sights and hearing the sound of my mother tongue, would be enough for me…… Ever Yours Most Affectionately, T.B. Macaulay.”
(Life and Letters of Lord Macaulay. Pp. 329-30; Bharti, pp. 46-47).
अर्थात् ”हमारे अंग्रेजी स्कूल आश्चर्यजनक गति से बढ़ हे हैं ! निसंदेह कुछ जगहों पर ऐसा होना मुश्किल हो रहा है, कुछ जगहों पर हमें उन सबकों शिक्षा दे पाना असंभव हो रहा है जो कि ऐसा चाहते हैं ! हुगली शहर में चौदह सौं लड़के अंग्रेजी सीख रहे हैं ! इस शिक्षा का हिन्दुओं पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ रहा है ! कोई भी हिन्दू जिसने अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर ली है, वह निष्ठापूर्वक हिन्दू धर्म से जुड़ा हुआ नहीं रहता है ! कुछ एक, औपचारिकता के रूप में, नाम मात्र को हिन्दू धर्म से जुड़े दिखाई देते हैं, लेकिन अनेक स्वयं को ‘शुद्ध देववादी’ कहते हैं तथा कुछ ईसाईमत अपना लेते हैं ! यह मेरा पूरा विश्वास है यदि हमारी शिक्षा की योजनाएँ चलती रहीं तो तीस साल बाद बंगाल के सम्भ्रान्त परिवारों में एक भी मूर्तिपूजक नहीं रहेगा और ऐसा किसी प्रकार के प्रचार एवं धर्मान्तरण किए बगैर हो सकेगा ! किसी धार्मिक आजादी में न्यूनतम हस्तक्षेप न करते हुए ऐसा हो सकेगा ! ऐसा स्वाभाविक ज्ञान देने की प्रक्रिया द्वारा हो जाएगा ! मैं हृदय से उस योजना के परिणामों से प्रसन्न हूँ !” आपका अत्यन्त प्रिय टी.बी. मैकॉले
(लार्ड मैकॉले की जीवनी और पत्र, पृ. ३२९; भारती पृ. ४६-४७)
मैकॉले के विचारों की पुष्टि करते हुए ”पादरी क्लिफोर्ड ने ईमानदारी से यह स्वीकारा है
“Every Christian missionary will claim that the mission school in India has a definite purpose. He may be specific and say that the funcgtion of mission schools in India is to lead boys and girls to lesus Christ.”
(Christianity in a Changing India, 147).
इसी निश्चित उद्देश्य के प्रति मैक्समूलर को सचेष्ट करने हेतु दिसम्बर १८५५ में मैकॉले ने उसे मिलने को बुलाया | इस भेंट का सम्पूर्ण वृतांत और उसके प्रभाव को स्वयं मेक्समूलर ने १८९८ में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘लैंग सायने’ में स्पष्ट किया है ! एक प्रकार से मैकॉले ने मैक्समूलर को अपमानजनक ढंग से आदेश देकर रुखसत किया ! अपनी माँ को लिखे पत्र में मैक्समूलर ने इस बदनाम साक्षात्कार का वर्णन किया है
“Macaulay, and I had a long conversation with him on the teaching necessary for the young men who are sent out to India. He is very clear headed, and extraordinarily went back to Oxford a sadder, and I hope, a wiser man.” (LLMM, Vol. 1, p. 162; Bharti, pp. 35-36).
इस बार मैं लंदन में मैकाले से मिला और उसके साथ मेरी भारत भेजे जाने वाले नौजवानों को क्या सिखाकर भेजा जाए, इस विषय पर लम्बी बातचीत हुई । निश्चित ही उसके विचार एकदम स्पष्ट हैं और वह असाधारण रूप से वाक्पटु व्यक्ति है | मैं और अधिक दुःखी होकर ऑक्सफोर्ड वापिस लौटा, किन्तु शायद, अधिक समझदार मनुष्य बनकर”
(जी.प.खं. १, पृ. १६२)
मूलर के जीवनी लेखक नीरद चौधरी का मत है कि ‘इस भेंट के बाद उसने मध्यम मार्ग अपनाया’, (वही. पृ. १३४), या यह कहिए कि उसने एक बहुरुपिया जैसा खेल खेला जिससे कि ब्रिटिशों के राजनैतिक उद्देश्यों की भी पूर्ति होती रह और भारतीयों को भी शब्द जाल में बहकाए रखा ? मैक्समूलर एक अर्न्तमुखी व्यक्ति था जिसने ऋग्वेद के भाष्य करने के पीछे अपने सच्चे मनोभावों और उद्देश्यों को अपने जीवन भर कभी भी सार्वजनिक रूप से उजागर नहीं किया ! मगर अपने हृदय की भावनाओं को १५ दिसम्बर १८६६ को केवल अपनी पत्नी को लिखे पत्र में अवश्य व्यक्त किया ! उसके ये मनोभाव एवं उद्देश्य आम जनता को तभी पता चल सके जब उसके निधन के बाद, १९०२ में उसकी पत्नी जोर्जिना मैक्समूलर ने उसकी जीवनी व पत्रों को सम्पादित कर दो खण्डों में एक दूसरी जीवनी प्रकाशित की ! यदि श्रीमती जोर्जिना उसे अप्रकाशित पत्रों को प्रकाशित न करती तो विश्व उस छद्मवेशी व्यक्ति के असली चेहरे को आज तक भी नहीं जान पाता
“I hope I shall finish that work, and I feel convinced, though I shall not live to see it, that this edition of mine and the translation of the Veda will hereafter tell to a great extent on the fate of India, and on the growth of millions of souls in that country. It is the root of their religion, and to show them what that root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung up from it during the last three thousand years.”
(LLMM. Vol, 1, p. 328).
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संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
- मैक्स्मूलर द्वारा वेदों का विकृतिकरण : क्या, क्यों और कैसे?
- मैक्समूलर के विचारपरिवर्तन में महर्षि दयानन्द का प्रभाव (लेखक- युधिष्ठिर मीमांसक)
- Max Müller : A paid employee, who translated the Rigved in a demeaning style. The hidden secrets of his life.
- Online Library of Liberty - Friedrich Max Müller
- A Sanskrit Grammar for Beginners (Google book By F. Max-Muller)
- Gifford Lecture Series - Biography - Friedrich Müller
- Lourens P. van den Bosch,"Theosophy or Pantheism?: Friedrich Max Müller's Gifford Lectures on Natural Religion": full text of the article
- Vedas and Upanishads
- Vivekananda on Max Müller
- Friedrich Max Müller, The Hymns of the Rigveda, with Sayana's commentary London, 1849-7, 2nd ed. 4 vols., Oxford, 1890-92. PDF format.