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मल्टीपल माइलोमा
मल्टीपल माइलोमा वर्गीकरण व बाहरी संसाधन | |
मल्टीपल माइलोमा के ऊतिकी सहसंबंधी, प्लास्मासाइटोमा की सूक्ष्मछवि। | |
आईसीडी-१० | C90.0 |
आईसीडी-९ | 203.0 |
ICD-O: | M9732/3 |
ओ.एम.आई.एम | 254500 |
रोग डाटाबेस | 8628 |
मेडलाइन+ | 000583 |
ई-मेडिसिन | med/1521 |
एमईएसएच | D009101 |
बहु मज्जार्बुद या मल्टीपल माइलोमा प्लाज्मा सेल्स का कैंसर है। प्लाज्मा सेल्स अस्थिमज्जा या बोनमेरो में पाये जाते हैं और हमारे रक्षातंत्र के प्रमुख सिपाही हैं। यह एक कारखाना है जहां खून में पाई जाने वाली सभी कोशिकाएं तैयार होती हैं। यह रोग 1848 में परिभाषित किया गया।
अनुक्रम
कारण
रक्षातंत्र में कई तरह की कोशिकाएं होती हैं जो साथ मिल कर संक्रमण या किसी बाहरी आक्रमण का मुकाबला करती हैं। इनमें लिम्फोसाइट्स प्रमुख हैं। ये मुख्यतः दो तरह की होती हैं टी-सेल्स और बी-सेल्स। जब शरीर पर किसी जीवाणु का आक्रमण होता है तो बी-सेल्स परिपक्व होकर प्लाज्मा सेल्स बनते हैं। ये प्लाज्मा सेल्स अपनी सतह पर एंटीबॉडीज (जिन्हें इम्युनोग्लोब्युलिन भी कहते हैं) बनाते हैं, जो जीवाणु से युद्ध कर उनका सफाया करते हैं। लिम्फोसाइट्स शरीर के कई हिस्सों जैसे लिम्फ नोड, बोनमेरो, आंतों और खून में पाये जाते हैं। लेकिन प्लाज्मा सेल्स अमूमन बोनमेरो में ही पाए जाते हैं।
जब प्लाज्मा सेल्स कैंसरग्रस्त होते हैं, तो वे अनियंत्रित होकर तेजी विभाजित होने लगते हैं और गांठ का रूप ले लेते हैं जिसे प्लाज्मासाइटोमा कहते हैं। यदि एक ही गांठ बनती है तो इसे आइसोलेटेड या सोलिटरी प्लाज्मासाइटोमा कहते हैं, लेकिन यदि एक से अधिक गांठे बनती हैं तो इसे मल्टीपल माइलोमा कहते हैं। ये गांठें मुख्यतः अस्थिमज्जा में बनती हैं। मल्टीपल माइलोमा में तेजी से बढ़ते प्लाज्मा सेल्स बोनमेरो में फैल जाते हैं और दूसरी कोशिकाओं को बढ़ने के लिए पर्याप्त जगह नहीं मिल पाती है। फलस्वरूप अन्य कोशिकाओं की आबादी कम होने लगती है।
लक्षण
माइलोमा के प्रमुख लक्षण क्रेब (CRAB) नेमोनिक द्वारा याद रखे जा सकते हैं। CRAB का मतलब है: C = 'C'alcium elevated, R = 'R'enal failure, A = 'A'nemia, B = 'B'one lesions
हड्डियों का कमज़ोर होना
माइलोमा में हड्डियां भी कमजोर होने लगती है। हड्डियों को स्वस्थ और मजबूत रखने का कार्य दो तरह की कोशिकाएं करती हैं, जो मिल कर काम करती हैं। जहां ओस्टियोब्लास्ट कोशिकाएं नये अस्थि-ऊतक बनाती हैं, वहीं ओस्टियोक्लास्ट कोशिकाएं पुराने अस्ति-ऊतक को गलाने का काम करती हैं। माइलोमा सेल्स ओस्टियोक्लास्ट एक्टिवेटिंग फेक्टर का स्त्राव करते हैं, जिसके प्रभाव से ओस्टियोक्लास्ट तेजी से हड्डी को गलाने लगते हैं। दूसरी तरफ ओस्टियोब्लास्ट को नये अस्ति-ऊतक बनाने के आदेश नहीं मिल पाते हैं फलस्वरूप हड्डियां कमजोर व खोखली होने लगती हैं, मरीज को दर्द होती है और अनायास हड्डियां चटकने व टूटने लगती है। हड्डियां कमजोर होने से उनका कैल्शियम भी पिघलने लगता है और खून में कैल्शियम का स्तर बढ़ने लगता है।
गुर्दे की विफलता
असामान्य और कैंसरग्रस्त प्लाज्मा सेल्स संक्रमण से लड़ने लायक एंटीबॉडीज बनाने में असमर्थ होते हैं। अतः ये शरीर की रक्षा करने में पूरी तरह नाकामयाब रहते हैं। माइलोमा सेल्स एक ही प्लाज्मा सेल की अनेक कार्बन कॉपीज की तरह होते हैं और ये एक ही तरह की मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज या M प्रोटीन बनाते हैं। यह माइलोमा की खास विकृति है। इस प्रोटीन को पेराप्रोटीन या M स्पाइक भी कहते हैं। जब अस्थि-मज्जा, खून में इस प्रोटीन की मात्रा बढ़ने लगती है तो मरीज के कई परेशानियां होती हैं। इम्युनोग्लेब्युलिनेस प्रोटीन चेन्स 2 लंबी (heavy) और 2 छोटी (light) से बने होते हैं। कई बार गुर्दे इस M प्रोटीन का पेशाब में विसर्जन करते हैं। पेशाब में निकलने वाले इस प्रोटीन को लाइट चेन या बेन्स जोन्स प्रोटीन कहते हैं। ये किडनी को क्षति पहुँचा सकते हैं।
रक्ताल्पता
यदि लाल रक्त कोशिकाओं का निर्माण कम होने लगे, तो मरीज़ एनीमिया का शिकार हो जाता है, उसे कमजोरी व थकान होती है और शरीर सफेद पड़ जाता है। प्लेटलेट्स कम (Thrombocytopenia) होने पर रक्तस्त्राव होने का खतरा रहता है। श्वेत रक्त कोशिका कम (Leucopenia) होने पर संक्रमण हो सकते हैं।
खून में कैल्शियम बढ़ना (Hypercalcemia)
खून में कैल्शियम बढ़ने से अफरा-तफरी, सुस्ती, हड्डी में दर्द, कब्ज, मतली, बार-बार पेशाब लगना और प्यास अधिक लगना जैसे लक्षण हो सकते हैं। 30% मरीजों में यह तकलीफ हो सकती है।