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बालचिकित्सा
बालचिकित्सा (Pediatrics) या बालरोग विज्ञान चिकित्सा विज्ञान की वह शाखा है जो शिशुओं, बालों एवं किशोरों के रोगों एवं उनकी चिकत्सा से सम्बन्धित है। आयु की दृष्टि से इस श्रेणी में नवजात शिशु से लेकर १२ से २१ वर्ष के किशोर तक आ जाते हैँ। इस श्रेणी के उम्र की उपरी सीमा एक देश से दूसरे देश में अलग-अलग है।
अनुक्रम
इतिहास
बालरोग विज्ञान (Pediatrics) या कौमारभृत्य को भारतीय चिकित्सक ईसा से 600 वर्ष पूर्व आयुर्वेद के अष्टांगों में एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में मानते थे। कौमारभृत्य के अंतर्गत प्रसूतितंत्र, स्त्रीरोगविज्ञान तथा बालरोग विज्ञान आते थे। इस वैज्ञानिक युग में विज्ञान में क्रांतिकारी प्रगति के साथ साथ चिकित्साशास्त्र के ज्ञानभंडार के अतिवर्धित होने से ये तीनों शास्त्र पृथक्-पृथक् महत्वपूर्ण हो गए हैं। कौमारभृत्य विषय पर स्वतंत्र आर्ष ग्रंथ केवल काश्यपसंहिता ही उपलब्ध हुआ है। इस ग्रंथ का प्रतिसंस्कर्ता वृद्धिजीवक, जो कौमारतंत्र का विशेषज्ञ माना जाता था, शल्य विशेषज्ञ जीवक से नितांत भिन्न है। कौमारभृत्य के अंतर्गत कुमार का पोषण, रक्षण, उसकी परिचारिका या धात्री, दुग्ध या आहार जन्य विकार, शारीरिक विकृतियाँ, गृहजन्य बाधा एवं औपसर्गिक रोग तथा आगुंतक रोगों का विवरण एवं चिकित्सा वर्णित हैं। इसी के अंतर्गत बालस्वास्थ्य का वर्णन उपलब्ध होता है।
यदि आधुनिक चिकित्सापद्धति के इतिहास का अवलोकन किया जाए, तो ज्ञात होता है कि बालरोग विज्ञान नामक कोई स्वतंत्र शास्त्र 19वीं शताब्दी के अंत तक नहीं था तथा बालक, युवक का ही लघुरूप माना जाता था। सर्वप्रथम 1899 ई. में किंग्स कालेज चिकित्सालय, लंदन, में बालरोग विशेषज्ञ पृथक् रखा गया। इस समय शिशुओं की मृत्यु दर 20% से 40% तक पहुंच चुकी थी। 20वीं शताब्दी में क्रांतिकारी अनुसंधानों, पर्याप्त अध्ययन एवं जनस्वास्थ्य के सिद्धांतों की सहायता से शिशु-मृत्यु-दर पहले से 10 प्रतिशत कम होने लगी। इसके पश्चात् भी वैज्ञानिकों को संतोष नहीं हुआ है और वे मृत्यु दर को कम करने के उपायों के अनुसंधान में लगे हुए हैं। आधुनिक चिकित्सक बालक की वृद्धि एवं विकास को एक युवा पुरुष से भिन्न मानते हैं और कुमार को शरीररचना विज्ञान, शरीरक्रिया विज्ञान, मानस विज्ञान एवं रोग क्षमता के दृष्टिकोण से युवा से भिन्न मानते हैं। बालक की शरीरक्रिया में लगातार परिवर्तन होते रहते हैं, जो उसके स्वास्थ्य के लिए अत्यंत अनुकूल एवं आवश्यक हैं। इसके साथ-साथ स्वास्थ्य विज्ञान, पोषण विज्ञान, रोगक्षमता विज्ञान, भ्रूण विज्ञान, सूक्ष्मजीव विज्ञान, महामारी विज्ञान एवं स्वच्छता विज्ञान के संबंध में हो रहे अनुसंधानों से चिकित्साक्षेत्र में बड़ी उन्नति हुई हैं। नवीन औषधियों की खोज से, निदान के तरीकों में हुए परिवर्तनों से, रसचिकित्सा तथा कुमार शल्यविज्ञान के द्वारा व्याधियों पर पर्याप्त विजय प्राप्त कर ली गई है। इन समस्त कारणों से कौमारभृत्य, या कौमारतंत्र, आजकल एक विशेष विज्ञान माना जाने लगा है।
बालरोगों का वर्गीकरण
शिशुओं, बालकों और कुमारों में जो रोग उत्पन्न होते हैं, उन्हें कारण के अनुसार, अथवा जिस संस्थान विशेष का आश्रय ग्रहण कर उत्पन्न होते हैं तदनुसार, वर्गीकृत किया जाता है। ये रोग बालकों की वृद्धि पर प्रभाव डालते हैं। अत: उन कारणों का जो गर्भाधान से लेकर पूर्ण अभिवृद्धि तक प्रभावशील होते हैं, अध्ययन इस शास्त्र के अंतर्गत आता है; उदाहरणार्थ, आनुवंशिकता, गर्भिणी रोग एवं पोषण तथा प्रसवजन्य रोग।
बालरोगों का वर्गीकरण एवं विवरण निम्नलिखित है :
आनुवंशिक बालरोग
- पैतृक और मातृक,
- प्रसवपूर्व तथा
- प्रसवज
उपर्युक्त कारणों से उत्पन्न होनेवाले मुख्य रोग हीमोफिलिया (haemophilia), गर्भज रक्तनाल कोशिकाप्रसु रोग, पारिवारिक सावधिक अंगघात तथा मस्तिष्क विकार एवं ऐलर्जी रोग, जैसे एक्जीमा और श्वसनीगत श्वास रोग आदि हैं1
सहज रोग
बालक माता के गर्भ में रहते हुए माता-पिता के रोगों से ग्रसित हो जाता है, जैसे फिरंग। इतनी ही नहीं, व्याधियों से गर्भ की ठीक वृद्धि नहीं होती और कुछ विकृतियाँ पैदा हो जाती हैं जैसे : सहज मोतियाबिंद, हत्विकृत रचना तथा विकलांगता।
गर्भ धारण से पहले।
अगर माता पिता कुछ बातों का ध्यान रखे और कुछ नियम अपनाये तो अनुवांशिक रोगों को भी रोका जा सकता है.
1. (A)बच्चे के जन्म के लिए पूरी योजना और तयारी करनी चाहिए। गर्भ धारण से चार महीने पहले माता पिता को अपने स्वास्थ को ठीक रखने के लिए अच्छा खान पान, व्यायाम, ध्यान और एकुप्रेस्सेर भी करना चाहिए। ताकि उनका स्वास्थ उत्तम हो। हार्मोन्स ठीक से उत्पन्न हो और अगर कोई रोग हो तो ठीक होजाये।
(B) दंपत्ति को हर रोज एक गिलास सोना - चांदी -तम्बा - लोहा सवित पानी पीना चाहिए।
(C) स्त्री को तीन से लेकर सात बार तक नियमित मासिक स्राव आजाने के बाद ही गर्भ धारण होना चाहिए।
ऐसा करने से बच्चा विवेकी स्वस्थ उत्पान होगा। माता पिता के तन मन से सम्बंधित अनुवांशिक रोगों के होनी की सम्भावना भी काम होजाती है। जिस दम्पति को संतान ना होती हो अगर वो भी ये उपाए करें तो संतान होने की संभावना बढ़ जाती है।
प्रसवकाल में होनेवाले मुख्य रोग
श्वासावरोध, मस्तिष्क रक्तस्राव, मृदुअस्थिभग्न तथा पेशीघात प्रसवकाल में होनेवाले मुख्य रोग हैं। ये रोग प्रसवकाल में शिशु के लिए घातक हो जाते हैं या अवरुद्ध मानसिक वृद्धि, मिर्गी तथा मस्तिष्क घात आदि उपद्रवों को पैदा करते हैं।
अपोषणज रोग
बच्चों की वृद्धि के लिए एवं स्वच्छता के लिए पोषक आहार अत्यंत आवश्यक है। यह बालक की लंबाई, आकार, वजन तथा वय पर निर्भर करता है। पोषक आहार में (1) प्रोटीन, (2) आवश्यक एमीनो ऐसिड, (3) वसा, (4) कार्बोहाइड्रेट, (5) विटामिन, (6) जल तथा (7) खनिज द्रव्य अत्यंत आवश्यक हैं।
प्रोटीन की कमी से शरीर की वृद्धि, रक्त प्रोटीन का निर्माण तथा नई वस्तुओं का निर्माण रुक जाता है। कार्बोहाइड्रेट की कमी से शरीर में काम करने की शक्ति घट जाती है। खनिज द्रव्यों की कमी से अस्थि का निर्माण, हार्मोनों का निर्माण, एंजाइमो का निर्माण, शरीरवृद्धि, रक्तरंजन तथा अन्य रासायनिक क्रियाएँ अवरुद्ध हो जाती हैं। रक्त तथा शरीर के द्रवों का क्षार-अम्ल-संतुलन बिगड़ने से अतिसार, वृक्क रोग, वमन रोग वमन एवं कमजोरी आदि रोग होते हैं। इस प्रकार विटामिन ए की कमी से त्वक् शुष्कता, रात्र्यंधता होती है। विटामिन बी की कमी से कई रोग होते हैं। विटामिनी बी के कई प्रभेद हैं। थाइमीन की कमी से बेरी बेरी रोग, राइबोफ्लैविन की कमी से मुँह और आँतों में व्रण तथा निकोटिनिक अम्ल की कमी से रक्तवाहिनियों के रोग होते हैं। पाइरिडिक्सीन वमन रोकता है। कैल्सियम पैंटोथिनेट की कमी से हाथ, पैर में जलन होती है तथा नियासीन की कमी से पेलेग्रा रोग होता है। विटामिन डी की कमी से रिकेट होता है। विटामिन सी की कमी से स्कर्वी रोग होता है। विटामिन 'के' की कमी से रक्तस्रावी रोग हो जाता है। यदि भोजन में दूध, मांस, अंडे, मछली, फलरस, हरी सब्जियाँ तथा लवण हों जलहीनता न हो, तो विटामिन की कमी से होनेवाले रोग नहीं होते। जल पर्याप्त मात्रा में मिलने पर त्वक् शुष्कता, प्यास, अंत:स्रावों की उत्पत्ति में अवरोध तथा रक्तपरिसंचरण में बाधा नहीं हो पाती।
औपसर्गिक रोग
बच्चों में कुछ वैकारिक जीवाणु तथा परजीवी कृमियों के कारण भी रोग उत्पन्न होते हैं, जिन्हें औपसर्गिक रोग कहते हैं। ये रोग निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किए जा सकते हैं :
क. जीवाणुजन्य रोग, ख. विषाणुजन्य रोग, ग. रिकेट्सियल (rickesial) रोग, घ. माइकोटिक रोग तथा च. परजीवीजन्य रोग।
मुख्यत: संक्रामक रोगों में मसूरिका, कर्णफेर, कुकुरखाँसी, रोहिणी, स्कार्लेट ज्वर, शैशविक अंगघात, चेचक, चिकनपॉक्स, आँख दुखना, कान बहना आदि आते हैं। इनमें कुछ जीवाणुओं से तथा कुछ विषाणुओं से उत्पन्न होते हैं। टिटैनस, न्यूमोनिया तथा कुछ रोगों को, जैसे डिफ्थीरिया या रोहिणी (C. diphtheria), हूपिंग कफ (H. pertusis), स्माल पॉक्स आदि को टीके द्वारा रोका जा सकता है। इन रोगों की चिकित्सा इनके प्रतिजीवविष (antitoxin), प्रतिजैविकी (antibiotics), टॉक्सॉइड्स (toxoids), मानविक गामा ग्लोबिन आदि से की जाती है। टिटैनस, प्रतिसीरम से रोका जा सकता है।
बाल्यावस्था में श्वसन संस्थान में होनेवाले रोग निम्नलिखित होते हैं : सर्दी-जुकाम, शैशविक विषाणुज न्यूमोनिया, इन्फ्ल्यूएंज़ा तथा एटिपिकल न्यूमोनिया। ये सब रोग विशेष वाइरस से उत्पन्न होते हैं। इनके अतिरिक्त बैक्टीरियल न्यूमोनिया भयानक बालरोग है, परंतु आधुनिक सल्फा ओषधियों तथा प्रतिजैविकी (पेनिसीलीन, टेरामाइसीन, स्ट्रेप्टोमाइसीन) से पराजित कर लिया गया है; बालकों में यक्ष्मा (tuberculosis) भी होता है। यह बी.सी.जी. के टीके एवं अच्छे पोषण तथा शुद्ध वातावरण से रोका जा सकता है। स्ट्रेप्टोमाइसीन, पैराएमाइनो सैलिसिलिक अम्ल, तथा आइसो निकोटिनिक ऐसिड हाइड्रेसाइड से यक्ष्मा रोग से मुक्त किया जा सकता है। इन ओषधियों के साथ साथ कैल्सियम, विटामिन डी आदि भी दिया जाता है।
बालकों में सिफलिस रोग न हो, इसके लिए बालक उत्पन्न होने से पहले ही रोगी माता को पेनिसिलीन पर्याप्त मात्रा में देकर इस रोग को रोका जा सकता है।
इस प्रकार बच्चों में होनेवाले कुछ और रोग भी हैं, जिन्हें पेनिसिलीन स्ट्रेप्टोमाइसीन, टेरामाइसीन, क्लोरोमाइसिटीन, के द्वारा रोका जा सकता है। कुछ रोग, जैसे मस्तिष्कवरण शोथ (meningitis), लसपर्वशोथ (lymph adenitis), स्ट्रेप्टो कोकाय, मेनिंगोकोकाय, न्यूमोकोकाय आदि, जीवाणुओं के उपसर्ग से होते हैं। टाइफॉइड तथा गनोरिया भी क्लोरोमाइसीन, पेनिसिलीन, स्ट्रेप्टोमाइसीन आदि, से अच्छे होते हैं। मलेरिया - क्विनाइन, पेल्यड्रीन, निवाक्विन आदि से अच्छा होता है।
अन्य रोग
कुछ रोगों को, जैसे हृदय की रक्तवाहिनियों के और अन्नवह स्रोतस के रोगों को, तथा तंत्रिका संस्थान एवं हाथ-पैर इत्यादि की सहज विकृतियों को शल्य चिकित्सा से ठीक किया जा सकता है।
कुमारों में रूमैटिक ज्वर भी पाया जाता है। इसका ठीक कारण अभी अज्ञात है, परंतु इसे सैलिसिलेट, ए. सी. टी. एच. और कॉर्टिसोन से ठीक किया जाता है।
चिकित्सा जगत् में हारमोन चिकित्सा द्वारा एंडोक्राइन ग्रंथिज रोगों का उन्मूलन किया जाता है। एंडोक्राइन ग्रंथिज रोग निम्नलिखित हैं : डायाबीटिज़ मेलाइटस, एकाएक होनेवाली शर्कराहीनता, डायाबीटिज़ इंसिपिडस, पेराथाइरॉइडजन्य टिटेनी, ऐड्रिनलजन्य रोग, अति ऐड्रिनलजन्य रोग, पिट्यूटरी हीनता जन्य रोग, थाईरॉइड हीनताजन्य रोग तथा यौन ग्रंथिज रोग।
बालकों में मानसिक, भावुकताजन्य तथा सामाजिक विषयक असंतुलित अवस्थाओं से होनेवाले रोगों का महत्व दैहिक व्याधियों से कम नहीं है। इसके लिए मानसिक स्वस्थता और मन:कायिक चिकित्सा की सहायता द्वारा बालकों के मानसिक विकास की अभिवृद्धि की जा सकती है। बालकों के घातक रोगों में टिटैनस, डिफ्थीरिया, यक्ष्मा, मेनेन्जाइटिस, एन्सेफलाइटिस, न्यूमोनिया, बाल यकृतशोथ आदि हैं।
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- American Academy of Paediatrics
- Baby Constipation? See our Help Baby Poo FAQ
- Canadian Paediatric Society
- Pediatric Collection by the BMJ - Collection of Pediatric papers published in the British Medical Journal.
- Carrollton Paediatrics Health News
- Dynamic Differential Diagnosis
- Paediatrics.info
- SearchingPediatrics.com - Searching pediatric peer-reviewed information
- GeneralPediatrics.com - The general pediatrician's view of the Internet
- Pediatric Commons - A community of pediatric learning, teaching, sharing and collaboration
- "Pediatrician Online" - Online pediatricians answer queries related to child health, and run a parent friendly service
- Health-EU Portal Babies' and Children's health in the EU