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जराविद्या

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जराविद्या (Gerontology) और जरारोगविद्या (Geriatrics) का संबंध प्राणिमात्र के, विशेषकर मनुष्य के वृद्ध होने तथा वृद्धावस्था की समस्याओं के अध्ययन से है। संसार का प्रत्येक पदार्थ, निर्जीव और सजीव, सभी वृद्ध होते हैं, उनका जीर्णन (ageing) होता है। प्रत्येक धातु, पाषाण, काष्ठ, यहाँ तक कि कितनी ही धातुओं की रेडियोधर्मिता (Radioactivity) का गुण भी मंद हो जाता है। यही जीर्णन या वृद्ध होना कहलाता है। एक प्रकार से उत्पत्ति के साथ ही जीर्णन प्रारंभ हो जाता है, तो भी यौवन काल की चरम सीमा पर पहुँचने के पश्चात् ही जीर्णन अथवा जरावस्था की प्रत्यक्ष प्रांरभ होता है।

जराविज्ञान के तीन अंग हैं :

  • (1) व्यक्ति के शरीर का ह्रास,
  • (2) व्यक्ति के शारीरिक अवयवों, अंग या अंगों का निर्माण करनेवाली कोशिकाओं का ह्रास और
  • (3) वृद्धावस्था संबंधी सामाजिक और आर्थिक प्रश्न।

इस अवस्था में जो रोग होते हैं, उनके विषय को जरारोगविद्या कहा जाता है। जरावस्था के रोगों की चिकित्सा (Geriatrics) भी इसी का अंग है।

जरावस्था के प्रारंभ के सामान्य लक्षण, बालों का सफेद होना तथा त्वचा पर झुर्रियाँ पड़ जाना महत्व की घटना नहीं है। उसकी विशेषता आभ्यंतराँगों या ऊतकों (tissues) में होनेवाले वे परिवर्तन हैं, जिनके फलस्वरूप उन अंगों की क्रिया मंद पड़ जाती है। इस प्रकार के परिवर्तन बहुत धीमें और दीर्घकाल में होते हैं। चलने, भागने, दौड़ने की शक्ति का ह्रास इस अवस्था का प्रथम लक्षण है। किंतु यदि व्यक्ति युवावस्था में स्वस्थ रहा है तो अभ्यंतरांगों में ह्रास दीर्घकाल तक नहीं होता तथा विचार की शक्ति बढ़ जाती है। वृद्ध व्यक्ति में अपनी आयु के अनुभवों के कारण सांसारिक प्रश्नों को समझने और हल करने की विशेष क्षमता होती है। इसीलिए कहा गया है कि "न सा सभा यत्र न संति वृद्धा:"। वृद्ध व्यक्ति की नवीन विषयों को समझने की शक्ति भी नहीं घटती। यही पाया गया है कि 82 वर्ष की आयु में व्यक्ति की विषय को ग्रहण करने की शक्ति 12 वर्ष के बालक के समान होती है। यह शक्ति 22 वर्ष की आयु में सबसे अधिक उन्नत होती है।

प्राणिमात्र का शरीर असंख्य कोशिकाओं (cells) के समूहों का बना हुआ है। अतएव ह्रास की क्रिया का अर्थ है कोशिकाओं का ह्रास। कोशिकाओं की सदा उत्पत्ति होती रहती है। वे नष्ट होती रहती हैं और साथ ही नवीन कोशिकाएँ उत्पन्न भी होती रहती हैं। यह अवधि जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत होती रहती है। इस प्रकार कोशिकाएँ सदा नई बनी रहती हैं। कोशिकाओं का सामूहिक कर्म ही अंग का कर्म है। किंतु वृद्धावस्था प्रारंभ होने पर इनकी उत्पत्ति की शक्ति घटने लगती है और जितनी उत्पत्ति कम होती है, उतना ही अंगों की कर्मशक्ति का ह्रास होता है।

कोशिका के जीर्णन प्रविधि का ज्ञान अभी तक अत्यल्प है। इसके ज्ञान का अर्थ है जीवनोत्पत्ति का ज्ञान। इसका ज्ञान हो जाने पर जीवन ही बदला जा सकता है।

अंगों के ह्रास के कारण वृद्ध शरीर में बाह्य उत्तेजनाओं की प्रतिक्रिया करने की शक्ति घट जाती है। अतएव यह रोगों के जीवाणुओं (bacteria) आदि के शरीर में प्रवेश करने पर उनका प्रतिरोध नहीं कर पाता। आघात आदि से क्षत होने पर यह नवीन ऊतक बनाने में असमर्थ होता है। यद्यपि जरावस्था के रोग युवावस्था के रोगों से किसी प्रकार भिन्न नहीं होते, तो भी उपर्युक्त कारणों से चिकित्सा में बाधा उत्पन्न हो जाती है और चिकित्सक को विशेष आयोजन करना होता है। वृद्धावस्था में होनेवाले विशेष रोग ये हैं : धमनी काठिन्य (arteriosclerosis), तीव्र रक्त चाप (high blood pressure), मधुमेह (diabetes), गठिया (gout), कैंसर (cancer) तथा मोतियाबिंद (cataract)। इनमें से प्रथम और द्वितीय रोगों का हृदय और शारीरिक रक्त संचरण से सीधा संबंध होने के कारण उनसे अनेक प्रकार से हानि पहुँचने की आशंका रहती है।

उपर्युक्त जरावस्था के रोगों की विशेषता यह है कि वे लक्षण प्रकट होने के बहुत पहले प्रारंभ होते हैं, जब कि उनका संदेह तक नहीं हो सकता। 2 से 20 वर्ष पूर्व उनका प्रारंभ होता है। अनेक बार अन्य विकारों के कारण रोगी की जाँच करने पर उनका चिकित्सक को पता लगता है, तब उनको रोकना असंभव हो जाता है और वे असाध्य हो जाते हैं; अतएव चिकित्सक को प्रौढ़ावस्था के रोगियों की परीक्षा करते समय भावी संभावना को ध्यन में रखना चाहिए। शरीर के भीतर ही उत्पन्न विकार इन रोगों का कारण होते हैं। जीवाणुओं की भाँति इनका कोई बाहरी कारण नहीं होता, इस कारण इनका निरोध असंभव होता है।

कोशिकाओं का ह्रास

प्रयोगों से मालूम हुआ कि शरीर की कोशिकाएँ बहुदीर्घजीवी होती हैं। एक विद्वान् ने मुर्गी के भ्रूण के हृदय का टुकड़ा काट कर उपयुक्त पोषक द्रव्य में 34 वर्ष तक रखा। इस दीर्घ काल के पश्चात् भी वे कोशिकाएँ वैसी ही सजीव और क्रियाशील थीं जैसी प्रारंभ में। इसके कई गुना लंबे काल तक कोशिकाएँ जीवित रखी गई हैं। विद्वानों का कथन है कि वे अमर सी मालूम होती है। अत: प्रश्न उठता है कि जरावस्था का क्या कारण है?

विद्वानों का मत है कि जरा का कारण कोशिकाओं के बीच की अंतर्वस्तु द्रव (fluids), तंतुओं आदि में देखना चाहिए। उनके मतानुसार इन तंतुओं या अन्य प्रकार की अंतर्वस्तु द्रव की वृद्धि हो जाती है, जो अपने में खनिज लवण एकत्र होने से कड़े पड़ जाते हैं। इस कारण अतंर्स्थान में होकर जो वाहिकाएँ कोशिकाओं को पोषण पहुँचाती हैं, वे दब जाती हैं तथा दब कर नष्ट हो जाती हैं जिससे कोशिकाओं में पोषण नहीं पहुँच पाता और वे नष्ट होने लगती हैं। इसी से जरावस्था की उत्पत्ति होती है।

जरावस्था का सामाजिक रूप

जरावस्था सदा से सामाजिक प्रश्न रही है। वृद्धावस्था में स्वयं व्यक्ति में जीवकोपार्जन की शक्ति नहीं रहती और अधिक आयु होने पर उनके लिए चलना फिरना या नित्यकर्म करना भी कठिन होता है। अतएव वृद्धों को न केवल अपनी उदर पूर्ति के लिये अपितु अपने अस्तित्व तक के लिए दूसरों पर निर्भर करना पड़ता है। समाज के सामने सदा से यह प्रश्न रहा है कि किस प्रकार वृद्धों को समाज पर भार न बनने दिया जाए, उनको समाज का एक उपयोगी अंग बनाया जाए तथा उनकी देखभाल, उनकी आवश्कताओं की पूर्ति तथा सब प्रकार की सुविधाओं का प्रबंध किया जाए।

यह प्रश्न 20वीं शताब्दी में और भी जटिल हो उठा है, क्योंकि जीवनकाल की अवधि में विशेष वृद्धि होने से वृद्धों की संख्या बहुत बढ़ गई है। इस कारण उनके लिए निवासस्थान, जरावस्था पेंशन (जो अभीतक यथोचित रूप में हमारे देश में नहीं है, किंतु उत्तर प्रदेश सरकार ने इसे प्रारंभ कर दिया है।) सरकार उनका भरणपोषण, जो काम करने योग्य हों उनके लिए उपयुक्त काम, बीमार होने पर चिकित्सा का प्रबंध तथा अन्य अनेक ऐसे प्रश्न हैं जो समाज को सुलझाने होंगे। इस विषय की ओर सन् 1940 से पूर्व विशेष ध्यान नहीं दिया गया था। किंतु अब यह प्रश्न, विशेषकर पाश्चात्य देशों में, इतना जटिल हो उठा है कि उन देशों की सरकारें इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करने और उचित योजनाएँ बनाने में व्यस्त हैं, क्योंकि उसका प्रभाव जाति के सभी आयुवालों पर पड़ता है।

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