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गाँजा
गांजा (Cannabis या marijuana), एक मादक पदार्थ है जो गांजे के पौधे से भिन्न-भिन्न विधियों से बनाया जाता है। इसका उपयोग मनोसक्रिय मादक (psychoactive drug) के रूप में किया जाता है। मादा भांग के पौधे के फूल, आसपास की पत्तियों एवं तनों को सुखाकर बनने वाला गांजा सबसे सामान्य (कॉमन) है। गांजा का सेवन करने पर व्यक्ती की उत्तेजना बढ जाती है। गांजे मे मिलाई जाने वाली तम्बाकू मिरजी कर्करोग ( Cancer ) का प्रमुख कारण है। गांजा व्यसनी लोगों के चेहरे पर काले दाग ( spots ) पड जाते है। गांजा के पौधे के औषध से मनोरुग्ण का ईलाज किया जाता है। फ्रान्स के लोग आत्मविश्वास बढाने के लिए गांजा का सेवन करते है। दुनिया का सबसे बेहतरीन ( Best ) गांजा मलाना हिल्स हिमाचल में ऊगता है।
अनुक्रम
गाँजे का पौधा
गाँजा एक मादक द्रव्य है जो कैनाबिस सैटाइवा (Cannabis sativa Linn) नामक वनस्पति से प्राप्त होता है। यह मोरेसिई (Moreaceae) कुल के कनाब्वायडी समुदाय का पौधा है। यह मध्य एशिया का आदिनिवासी है, परंतु समशीतोष्ण एवं उष्ण कटिबंध के अनेक प्रदेशों में स्वयंजात अथवा कृषिजन्य रूपों में पाया जाता है। भारत में बीज की बोआई वर्षा ऋतु में की जाती है। गाँजे का क्षुप प्राय: एकलिंग, एकवर्षायु और अधिकतर चार से आठ फुट तक ऊँचा होता है। इसके कांड सीधे और कोणयुक्त, पत्तियाँ करतलाकार, तीन से आठ पत्रकों तक में विभक्त, पुष्प हरिताभ, नर पुष्पमंजरियाँ लंबी, नीचे लटकी हुई और रानी मंजरियाँ छोटी, पत्रकोणीय शुकिओं (Spikes) की होती हैं। फल गोलाई लिए लट्टु के आकार का और बीज जैसा होता है। पौधे गंधयुक्त, मृदुरोमावरण से ढके हुए और रेज़िन स्राव के कारण किंचित् लसदार होते हैं।
कैनाबिस के पौधों से गाँजा, चरस और भाँग, ये मादक और चिकित्सोपयोगी द्रव्य तथा फल, बीजतैल और हेंप (सन सदृश रेशा), ये उद्योगोपयोगी द्रव्य, प्राप्त किए जाते हैं।
गाँजा
नारी पौधों के फूलदार और (अथवा) फलदार शाखाओं को क्रमश: सुखा और दबाकर चप्पड़ों के रूप में गाँजा तैयार किया जाता है। केवल कृषिजात पौधों से, जिनका रेज़िन पृथक् न किया गया हो, गाँजा तैयार होता है। इसकी खेती आर्द्रएवं उष्ण प्रदेशों में भुरभुरी, दोमट (loamy) अथवा बलुई मिट्टी में बरसात में होती है। जून जुलाई में बोआई और दिसंबर जनवरी में, जब नीचे की पत्तियाँ गिर जाती हैं और पुष्पित शाखाग्र पीले पड़ने लगते हैं, कटाई होती है। कारखानों में इनकी पुष्पित शाखाओं को बारंबार उलट-पलट कर सुखाया और दबाया जाता है। फिर गाँजे को गोलाकार बनाकर दबाव के अंदर कुछ समय तक रखने पर इसमें कुछ रासायनिक परिवर्तन होते हैं, जो इसे उत्कृष्ट बना देते हैं। अच्छी किस्म के गाँजे में से १५ से २५ प्रतिशत तक रेज़िन और अधिक से अधिक १५ प्रतिशत राख निकलती है।
चरस
नारी पौधों से जो रालदार स्राव निकलता है उसी को हाथ से काछकर अथवा अन्य विधियों से संगृहीत किया जाता है। इसे ही चरस या 'सुल्फा' कहते हैं। ताजा चरस गहरे रंग का और रखने पर भूरे रंग का हो जाता है। अच्छी किस्म के चरस में ४० प्रतिशत राल होती है। वायु के संपर्क में रखने से इसकी मादकता क्रमश: कम होती जाती है। रेज़िन स्राव पुष्पित अवस्था में कुछ पहले निकलना प्रारंभ होता है और गर्भाधान के बाद बंद हो जाता है। इसलिये गाँजा या चरस के खेतों से नर पौधों को छाँट छाँटकर निकाल दिया जाता है। प्राय: शीततर प्रदेशों में यह स्राव अधिक निकलता है। इसलिये चरस का आयात भारत में बाहर से प्राय: यारकंद से तिब्बत मार्ग द्वारा, होता रहा है।
वस्तुतः चरस गाँजे के पेड़ से निकला हुआ एक प्रकार का गोंद या चेप है जो देखने में प्रायः मोम की तरह का और हरे अथवा कुछ पीले रंग का होता है और जिसे लोग गाँजे या तंबाकू की तरह पीते हैं। नशे में यह प्रायः गाँजे के समान ही होता है। यह चेप गाँजे के डंठलों और पत्तियों आदि से उत्तरपश्चिम हिमालय में नेपाल, कुमाऊँ, काश्मीर से अफगानिस्तान और तुर्किस्तान तक बराबर अधिकता से निकलता है और इन्ही प्रदेशों का चरस सबसे अच्छा समझा जाता है। बंगाल, मध्यप्रदेश आदि देशों में और यूरोप में भी यह बहुत ही थोड़ी मात्रा में निकलता है।
गाँजे के पेड़ यदि बहुत पास-पास हों तो उनमें से चरस भी बहुत ही कम निकलता है। कुछ लोगों का मत है कि चरस का चेप केवल नर पौधों से निकलता है। गरमी के दिनों में गाँजे के फूलने से पहले ही इसका संग्रह होता है। यह गाँजे के डंठलों को हावन दस्ते में कूटकर या अधिक मात्रा में निकलने के समय उस पर से खरोंचकर इकट्ठा किया जाता है। कहीं-कहीं चमड़े का पायजामा पहनकर भी गाँजे के खेतों में खूब चक्कर लगाते हैं जिससे यह चेप उसी चमड़े में लग जाता है, पीछे उसे खरोचकर उस रूप में ले आते हैं जिसमें वह बाजारों में बिकता है। ताजा चरस मोम की तरह मुलायम और चमकीले हरे रंग का होता है पर कुछ दिनों बाद वह बहुत कड़ा और मटमैले रंग का हो जाता है। कभी-कभी व्यापारी इसमें तीसी के तेल और गाँजे की पत्तियों के चूर्ण की मिलावट भी देते हैं। इसे पीते ही तुरंत नशा होता है और आँखें बहुत लाल हो जाती हैं। यह गाँजे और भाँग की अपेक्षा बहुत अधिक हानिकारक होता है और इसके अधिक व्यवहार से मस्तिष्क में विकार आ जाता है। पहले चरस मध्य एशिया से चमड़े के थैलों (या छोटे-छोटे चरसों) में भरकर आता था। इसी से उसका नाम चरस पड़ गया।
दुनिया का सबसे अच्छा चरस मलाना क्रिम के नाम से जाना जाता है। मलाना नाम के गांव मे यह चरस बनती है। यह गांव अपने आप में एक अजूबां है। यहा २०१८ में ५९३ एकर गांजा का उत्पादन हुआ था। यहा कि चरस (Ind. Currency ) ११०० रू. प्रति १० ग्राम के भाव से बिकती है।
भाँग
कैनाबिस के जंगली अथवा कृषिजात, नर अथवा नारी, सभी प्रकार के पौधों की पत्तियों से भाँग प्राय: तैयार की जाती है। पुष्पित शाखाएँ भी कभी साथ में मिली पाई जाती हैं, परंतु नीचे की पुरानी और निष्क्रिय पत्तियाँ संग्रह के समय छोड़ दी जाती हैं। तैयार करते समय पत्तियों को बारी-बारी से धूप और ओस में रखते हैं और सूख जाने पर इन्हें दबाकर रखते हैं। उत्तरी भारत के सभी प्रदेशों एवं मद्रास में, जंगली पौधों से, हल्के दर्जे की भाँग तैयार की जाती है। भाँग, सिद्धि, विजया, सब्जी तथा पत्ती आदि नामों से यह प्रसिद्ध है।
उपयोग
गाँजा और चरस का तंबाकू के साथ धूप्रपान के रूप में और भाँग का शक्कर आदि के साथ पेय अथवा तरह-तरह के माजूमों (मधुर योगों) के रूप में प्राय: एशियावासियों द्वारा उपयोग होता है। उपर्युक्त तीनों मादक द्रव्यों का उपयोग चिकित्सा में भी उनके मनोल्लास-कारक एवं अवसादक गुणों के कारण प्राचीन समय से होता आया है। ये द्रव्य दीपन, पाचन, ग्राही, निद्राकर, कामोत्तेजक, वेदनानाशक और आक्षेपहर होते हैं। अत: पाचनविकृति, अतिसार, प्रवाहिका, काली खाँसी, अनिद्रा और आक्षेप में इनका उपयोग होता है। बाजीकर, शुक्रस्तंभ और मन:प्रसादकर होने के कारण कतिपय माजूमों के रूप में भाँग का उपयोग होता है। अतिशय और निरंतर सेवन से क्षुधानाश, अनिद्रा, दौर्बल्य और कामावसाद भी हो जाता है।
फल और बीजतैल
स्वयंजात पौधों से, फलों का संग्रह, मुर्गी आदि पालतू चिड़ियों को खिलाने के लिए होता है। इसे पेरने पर लगभग ३५ प्रतिशत हरतपीत तैल निकलता है, जिसका उपयोग प्राय: अलसी तैल के स्थान पर होता है।
हेंप
यद्यपि 'हेंप' शब्द का व्यवहार कई जाति के पौधों से प्राप्त होने वाले रेशों के लिए होता है, तथापि वास्तविक हेंप (true hemp) कैनाबिस के रेशे को ही कहते हैं। रेशे के लिये कैनाबिस की खेती यूरोप, अमरीका, चीन, जापान, भारत (अल्मोड़ा आदि के ऊँचे पहाड़ी भागों एवं ट्रावनकोर) और कुछ कुछ नेपाल में होती है। इसके लिये किंचित् आर्द्र जलवायु और अच्छी दोमट मिट्टी चाहिए। नीचे की पत्तियों के गिरने और शाखाओं के पीले पड़ने पर खेत काटे जाते हैं। तनों को पानी (भारत) या ओस (यूरोप, अमरीका) में सड़ाकर रेशे पृथक किए जाते हैं। पुष्पितावस्था के ठीक पहले काटी हुई फसल से उत्तम रेशे निकलते हैं। श्वेत या तृणवर्ण के और अलसीसूत्र (linen) के सदृश चमकवाले सूत्र उत्तम पाने जाते हैं, सूत्र लंबाई में प्राय: ४० से ८० इंच तक बड़े, सूत्राग्र कुंठित, गोल और पृष्ठ असमतल होता है। जिन कोशों में ये बने होते हैं, वे प्राय: पौन इंच लंबे और २२ म्यू (म्यू=१/१,००० मि॰मी॰) मोटे होते हैं। इनका कोषावरण सैजूलोज ओर लिग्नोसैलूलोज का बना होता है। हेंप सूत्रों का उपयोग पतली डोरियों, रस्से, पाल आदि के विशेष प्रकार के कपड़े और गलीचे बनाने में होता है। हेंप कांड का उपयोग मोटे किस्म का कागल बनाने में भी हो सकता है।
इतिहास
कुछ प्राचीन समाजों को गांजा की औषधीय एवं मनोसक्रिय (psychoactive) गुण पता थे तथा इसका प्रयोग बहुत पुराने काल से लगातार होता आया है। कुछ अन्य समाजों में इसे सामाजिक कुप्रथा जैसा माना जाने लगा।
इन्हें भी देखें
- गाँजे का पौधा
- भांग
- भांग का पौधा
- हशीश
- मनोसक्रिय मादक (psychoactive drug)
बाहरी कड़ियाँ
- गांजा पिएं पर नशा न हो
- गांजा चिकित्सकीय प्रयोग : कुछ रोचक तथ्य !
- Wiktionary Appendix of Cannabis Slang
- Marijuana Policy Project
- National Organization for the Reform of Marijuana Laws
- Comprehensive Cannabis FAQs and Marijuana Information
- The Union: The Business Behind Getting High
- Scannabis.com - Cannabis News and Reports
- National Cannabis Prevention and Information Centre
- Tobacco and Marijuana Market Impact Index - National Trends