Продолжая использовать сайт, вы даете свое согласие на работу с этими файлами.
अष्टांग नमस्कार
अष्टाङ्ग नमस्कार या अष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम्, सूर्य नमस्कार का एक चरण है जिसमें शरीर, आठ (अष्ट) अंगों के द्वारा भूमि को स्पर्श करती है। ये आठ अंग हैं- दोनों पाँव, दोनों घुटने, छाती, ठुण्डी (दाढ़ी) और दोनों हथेलियाँ। इसको 'दण्डवत प्रणाम' इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस मुद्रा में शरीर 'दण्डवत' (= डंडे के समान (सीधा) ) हो जाता है।
हिंदू धर्म में मनुष्य के चार गुरु माने जाते हैं। माता, पिता, आचार्य और सद्गुरु। एक शिशु की प्रथम गुरु उसकी माता है जो उस मूक प्राणी को वाणी प्रदान करती है। प्रायः अच्छे घरों में माता बालक को बोलना सिखाने के लिए -जय- शब्द का उच्चारण कराने का अभ्यास कराती है। इसका अर्थ दूसरों को प्रणाम या नमस्कार करना है। सभ्यता के विकास में यह प्रणाम या नमस्कार भी तीन प्रकार का हो जाता है। समय, स्थान, भाषा, धर्म और अवस्था के अनुरूप प्रणाम करने की विधि और बोले जाने वाले शब्द भी भिन्न भिन्न हो जाते हैं। पहला प्रणाम समान आयु के सामान्य जनों को किया जाता है। दूसरा अपने से बड़ों के प्रति हाथ जोड़ कर किया जाता है। तीसरा प्रणाम श्रद्धाभाव में अति विशिष्ट पुरुषों के प्रति किया जाता है। ये अति विशिष्ट पुरुष हैं - परमात्मा, देवता, माता, पिता, आचार्य और गुरुदेव। सद्ग्रंथों में आत्मिक ज्ञान या मंत्रदाता गुरु का दर्जा अति उच्च वर्णन किया है जिन्हें दण्डवत् प्रणाम करने का विधान है। प्रणाम करने वाला भक्त अपने शरीर के आठ अंग - दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, पेट और मस्तक भूमि पर स्पर्श कर के अर्थात् सीधा दण्ड के समान लेट कर अपने वंदनीय को प्रणाम करता है। इसमें उसका भाव यह होता है कि मैं आपके संम्मुख मन वचन कर्म से समर्पण हूँ, वंदना करते हुए आप का आशीर्वाद मांगता हूँ, मुझ असमर्थ को अपनी आज्ञा और सामर्थ्य प्रदान कर उठ कर जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा दें।